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________________ गोपेन्द्र का अभिमत | १०६: यदि प्रकृति का एकान्त रूप में एक ही स्वभाव माना जाए तो प्रकृति का यदि एक पुरुष या आत्मा पर से अधिकार-संलग्नता या संयोग हटता है तो वह सहज ही सब आत्माओं पर घटित हो जाता है, ऐसा मानने को बाध्य होना होगा। [ १०८ ] तुल्य एव तथा सर्गः सर्वेषां संप्रसज्यते । । ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त एवं मुक्तिः ससाधना ॥ ऐसा-प्रकृति की एकस्वभावात्मकता मानने पर ब्रह्मा से लेकर तृणपुञ्ज तक सबका सर्जन एक ही साथ हो जायेगा-प्रकृति का सम्बन्ध एक से होते ही सबके साय होगा । सर्जन की यह बात मोक्ष पर भी लागू होगी। सबका मोक्ष भी एक ही साथ हो जायेगा । प्रकति की एक पर से अधिकार-- निवृत्ति-पृथक्ता होगी-सम्बन्ध अपगत होगा तो सब से स्वयमेव वैसा हो जायेगा । पर, वास्तव में वैसा अनुभूत नहीं होता। पूर्वसेवा-~ [ १०६ ] पूर्वसेवा तु तन्त्र गुरुदेवादिपूजनम् । ० सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वेषश्चेह प्रकीर्तिता ___ गुरुजनों तथा देवों का पूजन, सदाचार, तप एवं मुक्ति से अद्वेषमोक्ष का विरोध न करना, बुरा न बताना, उधर अरुचियुक्त न रहना, अभिरुचिशील रहना- इन्हें शास्त्रज्ञों ने पूर्वसेवा कहा है। [ ११० ] माता पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ॥ माता, पिता, कलाचार्य-भाषा, लिपि, गणित, काव्य, छन्द आदि विभिन्न विद्याएं तथा कलाएं सिखाने वाला अध्यापक, इनके–माता, पिता आदि इन सबके सम्बन्धी, वृद्ध पुरुष. धर्मोपदेष्टा-धर्म का रहस्य सम-- झानेवाले-सत्पुरुषों ने इन्हें गुरुवर्ग में लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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