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१०८ | योगबिन्दु है। भविष्य में यह कल्याण-परंपरा विशेष रूप से बढ़ती जाती है। जैसे “मणि,मन्त्र, औषधि आदि के विधि, श्रद्धा तथा आदरपूर्वक सेवन करने से -सभी अवस्थाओं में हितावह फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार सद्ज्ञानमय बुद्धि का आसेवन करने से आत्म-श्रेयस् के रूप में उत्तम फल प्राप्त होता है।
आचार्य गोपेन्द्र कब हुए, किस परंपरा से सम्बद्ध थे, उनकी क्या क्या रचनाएँ हैं, इत्यादि विषयों में कोई इतिहास प्राप्त नहीं होता । नामोल्लेख भी जहाँ तक संभव है, केवल यहीं मिलता है । आचार्य गोपेन्द्र के कथन के रूप में जो तत्त्व-निरूपण हुआ है, उससे प्रतीत होता है, वे सांख्य-योगाचार्य रहे हों। क्योंकि प्रतिपादन-पद्धति सांख्य-योग पर आधृत है।
[ १०५ ] उभयोस्तत्स्वभावत्वात् तदावर्तनियोगतः । युज्यते सर्वमेवैतन्नान्यथेति मनीषिणः ॥
प्रकृति तथा पुरुष-दोनों अपने-अपने स्वभावानुरूप प्रवृत्त होते हुए अन्तिम पुद्गलावर्त में उक्त स्थिति प्राप्त कर लेते हैं, यह घटित होता है, इससे अन्यथा-प्रतिकूल या विपरीत नहीं; ऐसा ज्ञानी जन स्वीकार करते हैं।
[ १०६ ] अत्राप्येतद् विचित्रायाः प्रकृतेर्य ज्यते परम् । इत्थमावर्तभेदेन यदि सम्यग् निरूप्यते ॥
यदि सम्यक् निरूपण किया जाए-तत्त्वालोचनपूर्वक प्रतिपादित किया जाए तो विचित्र-विविधरूपा-परिणमनशील स्वभावयुक्त प्रकृति के अन्तिम पुद्गल-परावर्त में ऐसा घटित होता है । तत्त्व-ज्ञान के कारण पुरुष के प्रकृति से पार्थक्यानुभूति की स्थिति आने लगती है, प्रकृति अधिकार“निवृत्ति की दिशा में प्रयाण करने लगती है, जो युक्तिसंगत है।
[ १०७ ] अन्यथैकस्वभावत्वादधिकारनिवृत्तित: ... एतस्य सर्वतद्भावो बलादापद्यते सदा ॥
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