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________________ १०० | योगबिन्दु - [ ७३ ] प्रदीर्घभवसभावान्मालिन्यातिशयात् तथा । अतत्त्वाभिनिवेशाच्च नान्येष्वन्यस्य जातुचित् ॥ इन तीनों श्रेणियों से बहिभूत-इतर प्राणी अति दीर्घ भवभ्रमण-संसार के जन्ममरणमय चक्र में पुनः पुनः परिभ्रमण, आवागमन, आत्मपरिणामों की अत्यधिक मलिनता, मिथ्या तत्त्व में अभिनिवेश-दुराग्रह के कारण अध्यात्म को नहीं पा सकते । [७४-७५ ] अनादिरेष संसारो नानागतिसमाश्रयः । पुद्गलानां परावर्ता अत्रानन्तास्तथा गताः ॥ सर्वेषामेव सत्त्वानां तत्स्वाभाव्यनियोगतः । नान्यथा संविदेतेषां सूक्ष्मबुद्ध या विभाव्यताम् ।। यह संसार अनादि है । इसमें मनुष्य-गति, देव-गति, नरक-गति तथा तिर्यञ्च-गति के अन्तर्गत अनेक योनियाँ हैं। जीव अनन्त पुद्गल-परावर्ती में से गुजरता है । ऐसे अनन्त पुद्गल-परावर्त व्यतीत हो चुके हैं। यह भव-भ्रमण का चक्र सभी प्राणियों के अपने अपने स्वभाव के कारण है। यदि ऐसा नहीं होता तो पुद्गल-परावर्त की कभी परिमितता नहीं होती। इस पर सूक्ष्म बुद्धि से चिन्तन करें। [ ७६ ] यादृच्छिकं न यत्कार्य . कदाचिज्जायते क्वचित् । । सत्त्वपुद्गलयोगश्च तथा कार्यमिति स्थितम् ॥ इस जगत् में जो भी कार्य है, वह यदृच्छा-अकस्मात्-कार्य-कारणपरंपरा के बिना कहीं भी नहीं होता। वह आत्मा तथा पुद्गल के संयोग से होता है । यही जगत् का स्वभाव है। [ ७७ ] चित्रस्यास्य तथाभावे तत्स्वाभाव्यदृते परः । न कश्चिद्ध तुरेवं च तदेव हि तथेष्यताम् ॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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