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________________ अध्यात्म | E& अतः वाद-विवादमय संघर्ष का परित्याग कर अध्यात्म का चिन्तन करें । अज्ञानरूप सघन अन्धकार को दूर किये बिना ज्ञेय - जानने योग्य तत्त्व में ज्ञान प्रवृत्त नहीं होता । अर्थात् वाद-विवादमय संघर्ष अज्ञान- प्रसूत अन्धकार की तरह है, जो अध्यात्म-साधना में नितान्त बाधक है । [ ७० ] यथैवाप्तिरुपेयस्य प्राज्ञः सदुपायपरो प्राप्त करने योग्य लक्ष्य या वस्तु की प्राप्ति सदुपाय - समुचित, समीचीन उपाय से ही संभव है, अनुचित, अनुपयुक्त उपाय से नहीं । अतः प्रज्ञाशील पुरुष को चाहिए, वह अपना ध्येय प्राप्त करने हेतु उत्तम, उचित उपाय का अवलम्बन करे । सदुपायाद नेतरस्मादिति [ ७१ ] सदुपायश्च नाध्यात्मादन्यः संदर्शितो बुधैः । दुरापं किंत्वदोपीह भवान्धौ सुष्ठु देहिनाम् ॥ ज्ञानी जनों ने वस्तु-स्वरूप के यथार्थ बोध तथा साधना में अग्र गति हेतु अध्यात्म के अतिरिक्त कोई और सदुपाय नहीं बताया है । अर्थात् अध्यात्म ही इनका एकमात्र सुन्दर उपाय है किन्तु संसार-सागर में निमग्न देहधारियों - प्राणियों के लिए अध्यात्म को उपलब्ध कर पाना कुछ कठिन है । [ ७२ ] चरमे पुद्गलावर्ते यतो यः भिन्नग्रन्थिश्चरित्रो च तथैव हि । भवेत् ॥ शुक्लपाक्षिकः । तस्यैवैतदुदातम् "1 अन्तिम पुद्गल - परावर्त में स्थित शुक्लपाक्षिक - मोहनीय कर्म के तीव्र भाव के अन्धकार से रहित, भिन्नग्रन्थि - जिसकी मोह प्रसूत कर्मग्रन्थि टूट गई है, चरित्री - जो चारित्र - परिपालन के पथ पर समारूढ़ है, ( वह ) अध्यात्म का अधिकारी कहा गया है । Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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