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योग का माहात्म्य | ६३
[ ४६ ] स्वप्नमन्त्रप्रयोगाच्च सत्यस्वप्नोऽभिजायते । विद्वज्जनेऽविगानेन सुप्रसिद्ध मिदं तथा ॥
स्वप्नोपयोगी मन्त्रों के द्वारा सत्य-यथार्थ स्थिति का सूचक स्वप्न" आता है। विद्वानों में निर्विवाद रूप में यह सुप्रसिद्ध है -विद्वान सर्वसम्मत रूप में ऐसा मानते हैं।
[ ४७. ] न ह्येतद् भूतमात्रत्वनिमित्तं संगतं वचः ।
अयोगिनः समध्यक्ष यन्न वंविधगोचरं ॥
यदि कहा जाए, ऊपर वणित सब मात्र भौतिक कारणों पर आश्रित है तो यह संगत-युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि अयोगी-जो योगाभ्यासी नहीं हैं, उन्हें वैसे स्वप्न आदि नहीं दिखाई देते ।
[ ४८ ] प्रलापमात्रं च वचो यदप्रत्यक्षपूर्वकम् । यथेहाप्सरसः स्वर्गे मोक्षे चानन्द उत्तमः ॥
प्रत्यक्ष रूप में देखे, जाने बिना किसी के सम्बन्ध में कुछ कहना प्रलाप मात्र है-केवल बकवास है । यदि यों कहते हैं तो वे जरा बतलाएँस्वर्ग में अप्सराएं हैं, मोक्ष में परम आनन्द है, यह सब प्रत्यक्षतः किसने देखा।
मीमांसकों को उद्दिष्ट कर ग्रन्थकार ने यह कहा है, ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि मीमांसक अप्रत्यक्ष या अतीन्द्रिय दर्शन को अस्वीकार करते हैं ।
_[ ४६ ] योगिनो यत् समध्यक्षं ततश्चेदुक्तनिश्चयः ।
आत्मादेरपि युक्तोऽयं तत एवेति चिन्त्यताम् ॥
यदि कोई कहे, योगी की यह विशेषता है, उसकी दृष्टि में वह सब (स्वर्ग में अप्सराएं हैं, इत्यादि) प्रत्यक्ष है, तदनुसार अप्रत्यक्ष भी दृष्ट है तो
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