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. ९२ | योगबिन्दु
अशुद्ध-खादमिश्रित स्वर्ण अग्नि के योग से-आग में गलाने से 'जैसे शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार अविद्या-अज्ञान द्वारा मलिन-दूषित या कलुषित आत्मा योग रूपी अग्नि से शुद्ध हो जाती है ।
[ ४२ ] अमुत्र संशयापन्नचेतसोऽपि ह्यतो ध्र वम् । सत्स्वप्नप्रत्ययादिभ्यः संशयो विनिवर्तते ॥
परभव या परलोक के सम्बन्ध में जिनका चित्त संशयपूर्ण होता है, “शुभ स्वप्न आदि द्वारा उन्हें यथार्थ प्रतीति-अनुभूति होती है, जिससे वह संशय विनिवृत्त हो जाता है-मिट जाता है। अर्थात् योगाभ्यासी को योग के प्रभाव से ऐसे उत्तम सपने आते हैं, जो उसका सन्देह दूर कर देते हैं।
[ ४३ ] श्रद्धालेशान्नियोगेन बाह्ययोगवतोऽपि हि ।
शुक्लस्वप्ना भवन्तीष्टदेवतादर्शनादयः ॥
जो योग के केवल बाह्य रूप का पालन करता है, बहुत सामान्य श्रद्धा लिए रहता है, उसे भी निश्चित रूप में अवश्य शुभ स्वप्न आते हैं, इष्ट देव के दर्शन आदि होते हैं।
[ ४४ ] देवान् गुरून द्विजान् साधून सत्कर्मस्था हि योगिनः । प्रायः स्वप्ने प्रपश्यन्ति हृष्टान् सन्नोदनापरान् ॥
उत्तम साधनाशील योगी स्वप्न में प्रायः देवताओं, गुरुजनों, ब्राह्मणों तथा साधुओं को प्रसन्न मुद्रा में सत्प्रेरणा प्रदान करते हुए देखते हैं ।
[ ४५ ] नोदनाऽपि च सा यतो यथार्थवोपजायते । तथा कालादिभेदेन हन्त नोपप्लवस्तत:
वह प्रेरणा समय पाकर सत्य सिद्ध होती है। ऐसे स्वप्न कोई मानसिक अनवस्थता या मनोविकार नहीं हैं।
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