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________________ १० | योगबिन्दु केवल लोकरंजनार्थ योग का प्रदर्शन अतात्त्विक योग है। वह सानुबन्ध योग है, जो लक्ष्य स्वायत्त करने तक अविच्छिन्न-बिना रुकावट गतिमान रहता है । जिसमें बीच-बीच में विच्छेद या गतिरोध आता रहता है, बह निरनुबन्ध योग है । जो संसार को दीर्घ-लम्बा बनाता है-जन्ममरण के चक्र को बढ़ाता है, वह सास्रव योग है । जो इस चक्र को रोकता है, मिटाता है, वह अनास्रव योग है। ये नाम योग की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के सूचक हैं। [ ३५ ] स्वरूपं संभवं चैव वक्ष्याम्यूर्ध्वमनुक्रमात् । अमीषां योगभेदानां सम्यक् शास्त्रानुसारतः ॥ आगे शास्त्रानुसार क्रमशः योग के इन भेदों के स्वरूप, उत्पत्ति आदि का भली भांति विवेचन करूगा । योग का माहात्म्य [ ३६ ] इदानीं तु समासेन योगमाहात्म्यमुच्यते । पूर्वसेवाक्रमश्चैव प्रवृत्त्यङ्गतया सताम् ॥ अब संक्षेप में योग के महत्त्व का वर्णन किया जा रहा है। साथ ही साथ पूर्व सेवा-योग-साधना में आने से पूर्व सेवनीय-आचरणीय कार्यविधि का भी विवेचन किया जारहा है, जिससे सत्पुरुष योग में प्रवृत्त होने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। [ ३७ ] योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्ध : स्वयंग्रह ॥ योग उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है-कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि रत्न की तरह साधक की इच्छाओं को पूर्ण करता है । वह (योग) सब धर्मों में मुख्य है तथा सिद्धि-जीवन की चरम सफलता-मुक्ति का अनन्य हेतु है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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