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________________ कुलयोगी आदि का स्वरूप | ६६ [ २११ ] सर्वत्राऽषिणश्चैते गुरुदेवद्विजप्रियाः । दयालवो विनीताश्च बोधवन्तो यतेन्द्रियाः ॥ वे कुलयोगी सर्वत्र अद्वेषी होते हैं-किसी से भी द्वेष नहीं रखते गुरु, देव तथा ब्राह्मण उन्हें प्रिय होते हैं-वे इनमें प्रीति रखते हैं, इनका आदर करते हैं । वे दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध तथा जितेन्द्रिय होते हैं। [ २१२ ] प्रवृत्तचक्रास्तु पुनर्यमद्वयसमाश्रयाः । शेषद्वयाथिनोऽत्यन्तं शुश्रूषादिगुणान्विताः ।। चक्र के किसी भाग पर डंडा सटाकर घुमा देने पर वह सारा स्वयं घमने लग जाता है, वैसे ही जिनका योगचक्र उसके किसी अंग का संस्पर्श कर लेने, संप्रेरित कर देने पर सारा अपने आप प्रवृत्त हो जाता है, चलने लगता है, वे प्रवृत्तचक्र योगी कहे जाते हैं । वे इच्छायम तथा प्रवृत्तियम- इन दो को साध चुकते हैं। स्थिरयम एवं सिद्धियम-इन दो को स्वायत्त करने की तीव्र चाह लिये रहते हैं, उधर अत्यन्त प्रयत्नशील रहते हैं। प्रवृत्तचक्र योगी १. शुश्रूषा- सत् तत्त्व सुनने की आन्तरिक तीव्र उत्कण्ठा रखना, २. श्रवण-अर्थ का मनन-अनुसन्धान करते हुए सावधानीपूर्वक तत्त्व सुनना, ३. सुने हुए को ग्रहण करना, ४. धारण - ग्रहण किये हुए का अवधारण करना. चित्त में उसका संस्कार जमाना, ५. विज्ञानअवधारण करने पर उसका विशिष्ट ज्ञान होता है, प्राप्त बोध दृढ़ संस्कार से उत्तरोत्तर प्रबल बनता जाता है, वैसी स्थिति प्राप्त करना, ६. ईहाचिन्तन, विमर्श, तर्क-वितर्क, शंका-समाधान करना, ७. अपोह-शंकानिवारण करना, चिन्तन विमर्श के अन्तर्गत प्रतीयमान बाधक अंश का निराकरण करना तथा ८. तत्त्वाभिनिवेश-तत्त्व में निश्चय पूर्ण प्रवेश या तत्त्वनिर्धारणमूलक अन्तःस्थिति प्राप्त करना-इन आठ गुणों से युक्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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