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________________ कुलयोगी आदि का स्वरूप | ६७ आचार्य ग्रन्थ-प्रणयन के सम्बन्ध में लिखते हैं अनेक योगशास्त्रों से उनका सार गृहीत कर मित्रा आदि दृष्टियों के भेद से-दृष्टि विश्लेषण की पद्धति से प्रस्तुत ग्रन्थ आत्मानुस्मृति-आत्मस्वरूप का, आत्मप्रगति का अनुस्मरण-आत्मलक्ष्य की ओर जागरूक रहने, आत्म पराक्रम के सतत विकासोन्मुख अभ्युदय का स्मरण रखने हेतु आत्मोपकारार्थ रचा गया है। [ २०८ ] कुलादियोगभेदेन चतुर्धा योगिनो यतः । अतः परोपकारोऽपि लेशतो न विरुध्यते ॥ कुलादि योग-गोत्रयोग, कुलयोग, प्रवृत्तचक्रयोग तथा निष्पन्नयोग -इन भेदों के आधार पर योगी चार प्रकार के हैं। उनमें से भी किन्हीं का यत्किञ्चित् उपकार सधे, इसका विरोध नहीं । अर्थात् इस ग्रन्थ की रचना का मुख्य प्रयोजन तो आत्मानुस्मृति या आत्मोपकार ही है पर योगियों का उपकार भी इसका उपप्रयोजन या गौण प्रयोजन है । [ २०६] कुलप्रवृत्तचक्रा ये त. एवास्याधिकारिणः । योगिनो न तु सर्वेऽपि तथासिद्ध यादि भावतः ॥ कुलयोगी तथा प्रवृत्तचक्रयोगी ही इसके अधिकारी हैं, सभी योगी नहीं । क्योंकि गोत्रयोगो में वैसी योग्यता की असिद्धि होती है-उसमें वैसी योग्यता नहीं होती तथा निष्पन्नयोगी को वैसी योगसिद्धि प्राप्त हो चुकतो है, जो प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशीलन तथा तदनुरूप साधन से प्राप्य है । अतः गोत्रयोगी तथा निष्पन्नयोगी-इन दो के लिए इसकी उपयोगिता नहीं है। .. . [ २१० ] .... ये योगिनां कुले जातास्तद्धर्मानुगताश्च ये । कुलयोगिन उच्यन्ते गोत्रवन्तोऽपि नापरे ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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