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________________ [ १५६ ] न ह्यलक्ष्मीसखी लक्ष्मीर्यथानन्दाय धीमताम् । तथा पापसखा लोके देहिनां भोगविस्तरः 11 . जैसे बुद्धिमान् - विवेकशील पुरुषों के लिए अलक्ष्मी की सहेली लक्ष्मी - वह लक्ष्मी, जिसके साथ अलक्ष्मी रहती है अथवा वह लक्ष्मी, जिसकी परिणति अलक्ष्मी में होती है, आनन्दप्रद नहीं होती - वे उसे कभी आनन्ददायक नहीं मानते, क्योंकि उसके साथ दुःख जो जुड़ा है । इसी तरह भोग-विस्तार, जो पाप का मित्र है, जिसके साथ पाप लगा है, जिसकी फलनिष्पत्ति पाप में है, प्राणियों के लिए आनन्दप्रद नहीं होता । स्थिरा - दृष्टि | ४६ [ १६० ] धर्मादपि भवन् भोग: प्रायोऽनर्थाय देहिनाम् । संभूतो दहत्येव हुताशनः चन्दनादपि 1 धर्म से भी उत्पन्न भोग प्राणियों के लिए प्रायः अनर्थकर ही होता है । जैसे चन्दन से भी उत्पन्न अग्नि जलाती ही है । [ १६१ ] भोगात्तदिच्छाविरति: Jain Education International स्कन्धभारापनुत्तये । ॥ स्कन्धान्तरसमारोपस्तत्संस्कारविधानतः भोगों को छककर भोग लेने से स्वयं इच्छा मिट जायेगी, यह सोचना वैसा ही है, जैसा किसी भारवाहक द्वारा अपने एक कन्धे पर लदे भार को दूसरे कन्धे पर रखा जाना । वस्तुस्थिति यह है, भोग भोगने से इच्छा विरत नहीं होती क्योंकि एक भोग भोगने के बाद दूसरे प्रकार के भोग से इच्छा जुड़ जाती है, व्यक्ति उसमें लग जाता है, उसके अनन्तर किसी तीसरी में, फिर चौथी में - यो: भोगक्रम चलता ही रहता है । जिस प्रकार भारवाहक के एक कन्धे का भार दूसरे पर चला जाता है, मूलतः भार तो जाता नहीं, वैसी ही बात भोगी के साथ है । उसकी भोग वाञ्छा मिटती नहीं, अनवरत भोग्रलिप्तत बनी रहती है क्योंकि उसके भौगिक संस्कार विद्यमान हैं, वासना छूटी नहीं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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