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________________ ४८ | योगदृष्टि समुच्चय समग्र सांसारिक चेष्टा-किया-प्रक्रिया बालकों द्वारा खेल में बनाये जाते घर जैसी प्रतीत होती है। बालक खेल में मिट्टी के घरों को बनाते हैं, जिन्हें थोड़ी देर में वे छिन्न-भिन्न कर देते हैं, उसी तरह सम्यग्दृष्टि प्रबुद्ध जनों को संसार की क्षणभंगुरता, अस्थिरता प्रतीत होने लगती है। उसमें वे आसक्त नहीं होते। [ १५६ ] मायामरीचिगन्धर्वनगरस्वप्नसन्निभान् बाह्यान् पश्यति तत्त्वेन भावान् श्रुतविवेकतः ॥ इस स्थिति को प्राप्त योगी, जिसका शास्त्रप्रसूत विवेक जागरित होता है; देह, घर, परिवार, वैभव आदि बाह्य भावों को मृगतृष्णा, गन्धर्व नगर-ऐन्द्रजालिक द्वारा मायाजाल के सहारे आकाश में प्रदर्शित नगर तथा दृष्ट स्वप्न-जो सर्वथा मिथ्या एवं कल्पित हैं, जैसा देखता है । उसे सांसारिक भावों की अयथार्थता का सत्य दर्शन-सम्यक् बोध हो जाता है। [ १५७ ] अबाह्यं केवलं ज्योतिनिराबाधमनामयम् । यदत्र तत्परं तत्त्वं शेषः पुनरुपप्लवः ॥ इस जगत् में परम-सर्वोत्तम तत्त्व अन्ततम में देदीप्यमान ज्ञान रूप ज्योति ही है, जो निराबाध-बाधा, पीड़ा या विघ्न रहित तथा अनामय-रोग रहित-दोष रहित या भावात्मक नीरोगता युक्त है । उसके अतिरिक्त बाकी सब उपप्लव-संकट, आपत्ति, विघ्न या भय है ।। [ १५८ ] एवं विवेकिनो धीराः प्रत्याहारपरायणा: । धर्मबाधापरित्यागयत्नवन्तश्च तत्त्वतः॥ इस प्रकार स्व-पर-भेद-ज्ञान-प्राप्त विवेकी धीर पुरुष प्रत्याहारपरायण होते हैं और वे धर्मबाधा-धर्माराधना में आने वाली बाधाओं के परित्याग में प्रयत्नशील रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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