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________________ ३६ | योगदृष्टि समुच्चय [ ११५ ] इष्टापूर्तानि कर्माणि लोके चित्राभिसन्धितः । नानाफलानि सर्वाणि दृष्टव्यानि विचक्षणैः ।। जो सुयोग्य पुरुष यह समझें--जो इष्टापूर्त कर्म हैं, वे संसार में भिन्न-भिन्न अभिप्राय से किये जाते हैं। अतः उनके फल भी भिन्न-भिन्न ही होते हैं। [ ११६ ] ऋत्विग्भिमन्त्रसंस्काराह्मणानां समक्षतः । अन्तर्वेद्यां हि यद्दत्तमिष्टं तदभिधीयते ।। ऋत्विजों--यज्ञ में अधिकृत ब्राह्मणों द्वारा मन्त्रसंस्कारपूर्वक अन्य ब्राह्मणों की उपस्थिति में वेदी के भीतर--वेदी-क्षेत्र के अन्तर्गत जो विधिवत् दान दिया जाता है, उसे इष्ट कहा जाता है । [ ११७ ] वापीकूपतडागानि देवतायतनानि अन्नप्रदानमेतत्तु पूर्त तत्त्वविदो विदुः ॥ बावड़ी, कू ए, तालाब तथा देवमन्दिर बनवाना, अन्न का दान देना पूर्त है, ज्ञानीजन ऐसा जानते हैं, कहते हैं । [ ११८ ] अभिसन्धेः फलं भिन्नमनुष्ठाने समेऽपि हि । परमोऽतः स एवेह वारीव कृषिकर्मणि ॥ अनुष्ठान के समान होने पर भी अभिसन्धि--अभिप्राय या आशय के भिन्न होने पर फल भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। अतः जैसे खेती में जल प्रधान है, उसी प्रकार फलसिद्धि में अभिप्राय की प्रधानता है। [ ११६ ] रागादिभिरयं चेह भिद्यतेऽनेकधा नृणाम् । नानाफलोपभोवतृणां तथा बुद्धयादिभेवतः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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