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दीप्रा-दृष्टि | ३५
जो संसारी देवों की गति में जाने वाले होते हैं, वे लोकपाल आदि संसारी देवों की भक्ति करते हैं। जो योगीजन संसार से अतीत परम तत्त्व को स्वायत्त करने का भाव लिये होते हैं, मुमुक्षु भाव रखते हैं, उनकी संसार से अतीत-संसार के पारगामी-मुक्त एवं सर्वज्ञ देवों के प्रति भक्ति होती है।
[ ११२ ] चित्रा चाद्यषु तद्रागतदन्यद्वषसङ्गता।
अचित्रा चरमे त्वेषा शमसाराखिलेव हि ॥ पहली चित्रा नामक भक्ति में, जो सांसारिक देवों के प्रति होती है, भक्त अपने इष्ट देव के प्रति राग तथा अनिष्ट देव के प्रति द्वेष रखते हैं। यों राग-द्वषात्मकता लिये वह भिन्न-भिन्न प्रकार ही होती है। चरमसंसार से अतीत तत्त्व-मुक्तात्मा के प्रति जो भक्ति होती है; वह शमशान्त भाव की प्रधानता लिये रहती है। वह अचित्रा-अभिन्नभिन्नता या भेद रहित है।
[ ११३ ] संसारिणां हि देवानां यस्माच्चित्राण्यनेकधा। स्थित्यैश्वर्यप्रभावाद्य : स्थानानि प्रतिशासनम् ॥
सांसारिक देवों के स्थान-पद, स्थिति, ऐश्वर्य तथा प्रभाव आदि के कारण प्रत्येक धार्मिक परम्परा में भिन्न-भिन्न हैं।
[ ११४ ] तस्मात्तत्साधनोपायो नियमाच्चित्र एव हि ।
न भिन्ननगराणां स्याद कं वम कदाचन ॥
इस कारण उन सांसारिक देवों की आराधना व भक्ति के प्रकार नियमत: भिन्न-भिन्न ही होते हैं। भिन्न-भिन्न नगरों को जाने का एक ही भार्ग कदापि नहीं होता।
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