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२४ | योगदृष्टि समुच्चय
[ ७६ ] क्षुद्रो लाभरतिर्दीनो मत्सरी भयवान् शठः । __ अज्ञो भवाभिनन्दी स्यान्निष्फलारम्भसंगतः ॥
भवाभिनन्दी जीव क्षुद्र-पामर वृत्तियुक्त, लाभरति-क्षणिक, निःसार सांसारिक लाभ-धन, भोग्य पदार्थ, भौतिक सुख-सुविधा आदि में आसक्त, दीन-दैन्युक्त, आत्मिक ओजस्विता रहित, रंकवत् अपने को हीन मानने वाला, मत्सरी-गुणद्वेषी, ईर्ष्यालु, भयवान् सदा भयभ्रान्त रहने वाला, शठ-मायावी, कपटी तथा अज्ञ-अज्ञानी, आत्मस्वरूप के भान से रहित होता है।
[ ७७ ] इत्यसत्परिणामानुविद्धो बोधो न सुन्दरः । तत्संगादेव
नियमाद्विषसंपृक्तान्नवत् ॥ यों असत् परिणामों से संकुल बोध सुन्दर नहीं होता। उन (असत् परिणामों) के संसर्ग से निश्चय ही वह विषमिले अन्न के समान होता है। विषमिश्रित अन्न जैसे पोषक न होकर घातक है, उसी प्रकार वह बोध आत्मा के लिए श्रेयस्कर न होकर विघातक-हानिकारक होता है।
[ ७८ ] एतद्वन्तोऽत एवेह - विपर्यासपरा नराः । । हिताहितविवेकान्धाः खिद्यन्ते साम्प्रतक्षिणः ॥
अतएव अवेद्यसंवेद्ययुक्त मनुष्य विपर्यासपरायण-वस्तु-स्थिति से विपरीत बुद्धि एवं वृत्ति रखनेवाले, हित, अहित के ज्ञान में अन्धवत्अपना हित, अहित नहीं पहचानने वाले तथा मात्र वर्तमान को ही देखने वाले होते हैं उनमें जरा भी दूरदर्शिता अथवा अतीत तथा भविष्यमूलक चिन्तन नहीं होता। वे अपनी अयोग्यता एवं अज्ञान के कारण दुःखी होते हैं।
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