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बीना-दृष्टि | २३ [ ७३ ] वेद्य-संवेद्यते यस्मिन्नपायादिनिबन्धनम् । तथाप्रवृत्तिबुद्ध याऽपि स्न्याद्यागमविशुद्ध या॥
वहाँ अपाय-आत्माभ्युदय में विघ्नकारक स्त्री आदि वेद्य-वेदन या अनुभव करने योग्य पदार्थ आगमों के अनुशीलन से विशुद्ध हुई अप्रवृत्तिशील बुद्धि द्वारा अनुभूत किये जाते हैं। अर्थात् वेद्य पदार्थों का संवेदनं-अनुभवन वहाँ होता है पर उनके प्रति रसात्मक या रागात्मक भाव नहीं होता, जैसा उनका स्वरूप है, मात्र वैसी प्रतीति-अनुभूति वहाँ गतिशील रहती है अतः वैसा अनुभव करने वाली शास्त्रपरिष्कृत बुद्धि आन्तरिक दृष्टि से प्रवृत्तिशून्य ही कही जाती है।
[ ७४ ]
तत्पदं साध्ववस्थानाद् भिन्न ग्रन्थ्यादिलक्षणम् । अन्वर्थयोगतस्तन्त्रे
वेद्यसंवेद्यमुच्यते॥ वह पद साधु अवस्थान-सम्यक् स्थिति लिए होता है। कर्मग्रन्थिभेद, देशविरति आदि से उसका स्वरूप लक्षित होता है। शास्त्र में (वेद्यसंवेद्य) शाब्दिक अर्थ के अनुरूप ही उसे 'वेद्यसंवेद्य' कहा जाता है।
[ ७५ ] अवेद्यसंवेद्यपदं विपरीतमतो मतम् । भवाभिनन्दिविषयं
समारोपसमाकुलम् ॥ वेद्यसंवेद्यपद से विपरीत-प्रतिरूप अवेद्यसंवेद्यपद है। उसका विषय भवाभिनन्दिता है। अर्थात् भवाभिनन्दी-संसार के राग-रस में रचे-पचे जीवों के साथ उसका लगाव है। इसमें एक पर दूसरे कास्व पर पर-वस्तु का, पर-वस्तु पर स्व का आरोप करते रहने की वृत्ति बनी रहती है, जो आत्म-परिपन्थी या श्रेयस् के प्रतिकूल है।
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