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तीर्थंकर
सौधर्मेन्द्र को लोकोत्तर भक्ति
जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक की भक्ति में लीन सौधर्मेन्द्र की विचित्र अवस्था हो रही थी । देवों द्वारा लाए गए सभी १००८ कलशों को एक साथ धारण करने की लालसा से सुरेन्द्र ने विक्रिया द्वारा अनेक भुजाएँ बना लीं । अनेक आभूषणों से अलंकृत उन भुजाओं से वह इन्द्र भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष सदृश प्रतीत होता था; अथवा एक हजार भुजाओं द्वारा उठाए हुए तथा मोतियों से अलंकृत सुवर्ण-कलशों को धारण करते हुए वह सुरराज भाजनांग कल्पवृक्ष की शोभा को धारण करता था ।
प्रथम जलधारा का हर्ष
पर
सौधर्मेन्द्र ने जय-जय शब्द कहते हुए प्रभु के मस्तक प्रथम ही जलधारा छोड़ी, उस समय करोड़ों देवों ने भी जयजयकार के शब्दों द्वारा महान् कोलाहल किया था । प्राचार्य कहते हैंजयेति प्रथमां बारां सौधर्मेन्द्रो न्यपातयत् ।
तथा कलकलो भूयान् प्रचक्रे सुरकोटिभिः ।। १६॥
भूमण्डल
[ ५१
भगवान के मस्तक पर पड़ती हुई उस पुण्यधारा ने समस्त को पवित्र कर दिया था । महापुराणकार कहते हैं
पवित्रो भगवान् पूतैः श्रंगैस्तदपुनाज्जलम् । तत्पुनर्जगदेवेदम् श्रपावीद् व्याप्तदिङ्मुखम् ॥ १३० ॥
भगवान् तो स्वयं पवित्र थे । उन्होंने अपने पवित्र प्रङ्गों से उस जल को पवित्र कर दिया था । उस पवित्र जल ने समस्त दिशाओं में फैलकर सम्पूर्ण जगत् को पवित्र कर दिया था ।
प्रभु
के अतुल बल से विस्मय
भगवान में बाल्यकाल में भी अतुल बल था । विशाल कलशों से गिरी हुई जलधारा से बाल- जिनेन्द्र को रंचमात्र भी बाधा नहीं होती थी । यह देख अनेक देवगण विस्मय में निमग्न हो गए थे ।
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