SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० ] तीर्थकर अभिषेक के लिए प्रथम कलश उठाया। ईशानेन्द्र ने सघन चन्दन से चचित दूसरा पूर्ण कलश उठाया । बहुत से देव श्रेणिबद्ध होकर सुवर्णमयी कलशों से क्षीरसागर का जल लेने निकले । भगवान का रक्त धवल वर्ण का था। क्षीरसागर का जल भी उसी वर्ण का है। अतएव उस जल द्वारा जिनेन्द्रदेव का अभिषेक बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। महापराणकार कहते हैं पूतं स्वायंभुवं गात्रं स्प्रष्टुं क्षीराच्छशोणितम् ।। नान्यदस्ति जलं योग्यं क्षीरान्धि सलिलादते ॥१३--१११॥ जो स्वयं पवित्र है, और जिसमें दुग्ध सदृश स्वच्छ रुधिर है, ऐसे भगवान के शरीर का स्पर्श करने के लिए क्षीरसागर के जल के सिवाय अन्य जल योग्य नहीं है, ऐसा विचारकर ही देवों ने पंचम क्षीरसागर के जल से पंचम गति को प्राप्त होने वाले जिनेन्द्र के अभिषेक करने का निश्चय किया था । क्षीरसागर को विशेषता क्षीरसागर के विषय में त्रिलोकसार का यह कथन ध्यान देने योग्य है जलयरजीवा लवणे कालेयंतिम-सयंभुरमणे य । कम्ममहीपडिबद्ध ण हि सेसे जलयरा जीवा ॥३२०॥ लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र, अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र ये कर्मभूमि से सम्बद्ध हैं। इनमें जलचर जीव पाए जाते हैं। शेष समुद्रों में जलचर जीव नहीं हैं । इससे यह विशेष बात दृष्टि में आती है कि क्षीरसागर का जल जलचर जीवों से रहित होने के कारण विशेषता धारण करता है। अभिषेक जल लाने के कलश सुवर्णनिर्मित थे। वे घिसे हुए चन्दन से चर्चित थे तथा उनके कंठभाग मुक्ताओं से अलंकृत थे "मुक्ता फलांचितग्रीवाः चन्दनद्रवचर्चिताः।" (पृ० ११५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy