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तीर्थकर
[ १९ स्तीर्णस्तिर्यग्लोक: । एवं च कृत्वाऽन्वर्थनिवचनं क्रियते । लोकत्रयं मिनातीति मेरुरिति” (पृ० १२७)
मेरु के वर्ण के विषय में अकलंक स्वामी ने लिखा है-- "अधोभूमिभाग सम्बन्धी एक हजार योजन प्रमाण प्रदेश के ऊपर वैडूर्य मणिरूप मे रु का प्रथम कांड है । द्वितीय कांड सर्व रत्नमय है, तृतीयकाण्ड सुवर्णमय है । 'चूलिका वैडूर्यमयीं'-"चलिका वैडूर्यमणिमयी है ।” (पृ० १२७)
पांडुक शिला
__ पांडक शिला के विषय में जिनमन स्वामी का यह पद्य ध्यान देने योग्य है--
याऽमला शीलमालेव मनीनामभिसम्मता। ___ जैनी तनुरिवात्यन्तभास्वरा सुरभिश्शुचिः ॥१३--६२॥
वह निर्मल पांडुकशिला शील-माला के समान मुनियों को अत्यन्त इष्ट है । वह जिनेन्द्र भगवान के शरीर के समान अत्यन्त दैदीप्यमान, मनोज्ञ तथा पवित्र है।
स्वयं धौतापि या धौता शतशः सुरनायकैः । क्षीरार्णवाम्बुभिः पुष्पैः पुण्यस्येवाक रक्षितिः ।।१३--६३॥
वह शिला स्वयं धौत अर्थात् उज्ज्वल है, फिर भी सुरेन्द्रों ने सैकड़ों बार उसका प्रक्षालन किया है। वास्तव में वह पाँडुकशिला पुण्योत्पत्ति के लिए खानि की भूमि तुल्य है ।
जन्माभिषेक
सभी देवगण जन्मोत्सव द्वारा जन्म सफल करने के हेतु पाँडुकशिला को घेरकर बैठ गए। देवों की सेना आकाशरूपी अाँगन को व्याप्त कर ठहर गई । भगवान पूर्व मुख विराजमान किए गए। देव दुंदुभि बज रही थी। अप्सराएँ नृत्यगान में निमग्न थीं। अत्यन्त प्रशान्त, भव्य तथा प्रमोद परिपूर्ण वातावरण था । सौधर्मेन्द्र ने
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