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________________ तीर्थकर [ ४३ साक्षात् भारती के द्वारा भी शायद ही सम्भव हो । त्रिलोकीनाथ की मुख-चन्द्रिका का दर्शन कर शची के नयन-चकोर पुलकित हो रहे थे । हृदय कल्पनातीत अानन्द-सिन्धु में निमग्न हो रहाथा। शची ने बाल-जिनेन्द्र सहित माता को बड़े प्रेम, ममता, श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक देखा । अनेक बार भगवान और जिनमाता की प्रदक्षिणा के पश्चात, त्रिभुवन के नाथ भगवान को बड़ी भक्ति से प्रणाम किया तथा जिनमाता की स्तुति करते हुए कहा-- त्वमम्ब भुवनाम्बासि कल्याणी त्वं सुमंगला । महादेवी त्वमेवाद्य त्वं सपुण्या यशस्विनी ॥१३--३० महापुराण।। हे माता ! तुम तो तीनों लोकों का कल्याण करने वाली विश्वजननी हो, कल्याणकारिणी हो, सुमङ्गला हो, महादेवी हो, यशस्विनी और पुण्यवती हो । जिनेन्द्र के स्पर्शन का सुख इस प्रकार जिनेन्द्र जननी के प्रति अपना उज्ज्वल प्रेम प्रदर्शित करते हुए माता को निद्रा निमग्न कर तथा उनकी गोद में माया-शिशु को रखकर शची ने जगद्गुरु को अपने हाथों में उठाया और परम आनन्द को प्राप्त किया । जिनसेन स्वामी कहते हैं-- तगात्र-स्पर्शमासाद्य सुदुर्लभमसौ तदा। मेने त्रिभुबनैश्वर्य स्वसास्कृतमिवाखिलम् ॥१३--३३॥ उस समय अत्यन्त दुर्लभ बाल-जिनेन्द्र के शरीर का स्पर्श कर शची को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो तीन लोक का ऐश्वर्य ही उसने अपने अधीन कर लिया हो । इन्द्राणी ने प्रभु को बड़े आदर पूर्वक लेकर इन्द्र को देने के लिए प्रसव-मन्दिर के बाहर पैर रखे । उस समय भगवान के आगे अष्टमङ्गल द्रव्य अर्थात छत्र, ध्वजा, कलश, चामर, सुप्रतिष्ठिक (ठोना) झारी, दर्पण तथा पंखा धारण करने वाली दिक्कुमारी देवियाँ भगवान की उत्तम ऋद्धियों के समान गमन करती हुई प्रतीत होती थीं। इसके अनन्तर इन्द्राणी ने देवाधिदेव को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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