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तीर्थकर अद्भ त शक्तियों का उपयोग सीमित शक्ति तथा साधन सम्पन्न मानव कर सकता है, तब वैक्रियिक शरीरधारी अवधिज्ञानी देव क्या-क्या चमत्कार नहीं दिखा सकते ? अतएव अात्म हितैषियों का कर्तव्य है कि जिनवाणी के कथन पर श्रद्धा करने में संकोच न करें ।
सुन्दर कल्पना
सोलह स्वर्ग पर्यंत के समस्त देव-देवांगना तथा भवनत्रिक के देवताओं का समुदाय महान् पुण्यात्मा सौधर्मेन्द्र के नेतृत्व में आकाशमार्ग से श्रेष्ठ वैभव, आनन्द, प्रसन्नता तथा अमर्यादित उल्लास के साथ अयोध्या की ओर बढ़ रहा था । जिनसेन स्वामी ने लिखा
तेषामापततां यानविमानैराततं नमः। त्रिषष्टिपटले योऽन्यत् स्वर्गान्तरमिवासृजत् ॥१३--२२॥
उन आते हुए देवों का विमान और वाहनों से व्याप्त हुआ आकाश ऐसा प्रतीत होता था मानो त्रेसठ-पटल वाले स्वर्ग को छोड़ यहाँ अन्य स्वर्ग का निर्माण हया हो।
महाराज नाभिराजके राजभवन का प्रांगण सुरेन्द्रों के समुदाय से भर गया था। देवों की सेनाएं अयोध्यापुरी को घेरकर अवस्थित हो गई । इन्द्र ने शची को आदेश दिया, कि तुम प्रसवमन्दिर में प्रवेश करो। माता को सुखमयी निद्रा में निमग्न करके उनकी गोद में मायामयी शिशु को रखकर जिनेन्द्रदेव को मेरु पर्वत पर अभिषेक के लिये लाओ।
शची द्वारा जिनेन्द्र-चंद्र का दर्शन
शची ने सुरराज की आज्ञा का पालन करते हुए उस नरेन्द्रभवन के अन्त पुर में प्रवेश किया और माता मरुदेवी के अंचल के भीतर विद्यमान बालस्वरूप जिनेन्द्र-चन्द्र का दर्शन किया । उस समय इन्द्राणी के हृदय में ऐसा आनन्द हया कि उसका वर्णन
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