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________________ तीर्थंकर [ ३३ के गर्भ में सूर्य प्रारम्भ में छिपा रहता है, फिर भी विश्व को प्रकाश देने वाले तेजःपुञ्ज प्रभाकर के प्रभाव से उस दिशा में विलक्षण सौन्दर्य तथा अपूर्वता नयनगोचर होती है, ऐसी ही स्थिति भगवान के गर्भ में विद्यमान रहने पर जिनेन्द्रजननी की हुई थी । माता के सौन्दर्य की झलक एक देवी की इस सुन्दर उक्ति में प्रतीत होती है, जो उसने प्रश्न के रूप में माता के समक्ष उपस्थित की थी । देवी पूछती है- माता की स्तुति किमेन्दुरैको लोकेऽस्मिन् त्वयाम्ब मृदुरीक्षितः । प्राछिनत्सि बलादस्य यदशेषं कलाधनम् ।।१२ -- २१४ महापुराण ॥ हे माता ! यह तो बताओ कि क्या तुमने इस जगत् में एक चंद्रमा को ही मृदु देखा है, जो उसकी परिपूर्ण कलारूप संपत्ति को तुमने जबरदस्ती छीनकर अपने पास रख लिया है ? यहाँ व्याज - स्तुति अलंकार के द्वारा माता के अनुपम सौन्दर्य पर प्रकाश डाला गया है । महाकवि जिनसेन स्वामी माता की एक अपूर्व विशेषता को सप्राण शब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं- सा नसीन परं कंचित् नम्यते स्म स्वयं जनैः । वांद्रकलेव रुद्रश्रीः देवोव च सरस्वती ।।१२ -- २६७॥ माता को स्वयं सभी लोग प्रणाम करते थे । माता किसी को प्रणाम नहीं करती थी । गर्भ में भगवान को धारण करने से माता की समता कौन कर सकता है ? अतः जिनजनमी महान् सौन्दर्य पूर्ण चन्द्रकला तथा भगवती सरस्वती सदृश प्रतीत होती थी । प्रभु की जन्म-वेला भगवान के जन्म का समय समीप ग्रा गया है । उस समय भगवान के पिता महाराज नाभिराय की स्थिति पर महापुराणकार इन अर्थपूर्ण शब्दों में प्रकाश डालते हैं- अनेक देवियाँ आदर के साथ जिसकी सेवा करती हैं, ऐसी माता मरुदेवी परमसुख देने वाले और तीनों लोकों में आश्चर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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