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________________ ३२ ] तीर्थंकर शची द्वारा गुप्त-सेवा महापुराण में यह महत्वपूर्ण कथन आया हैनिगूढं च शची देवी सिषेवे किल साप्सराः॥ मघोनाघ-विनाशाय प्रहिता तां महासतीम् ॥२६६॥ अपने समस्त पापों का नाश करने के लिए इन्द्र के द्वारा भेजी गई इन्द्राणी अनेक अप्सराओं के साथ माता की गुप्त रूप से सेवा करती थी। प्रभु की माता में प्रारम्भ से ही लोकोत्तरता थी। अब जिनेन्द्र देव के गर्भ में आने से वह सचमुच में जगत् की माता या जगदम्बा हो गई। उनकी महिमा का कौन वर्णन कर सकता है ? गर्भस्थ-प्रभु का वर्णन गर्भकल्याणक के वर्णन प्रसङ्ग में माता के गर्भ में विराजमान तथा सूर्य सदृश शीघ्र ही उदय को प्राप्त होने वाले उन भगवान की अवस्था पर प्रकाश डालने वाला धर्मशर्माभ्युदय का यह पद्य कितना भावपूर्ण हैगर्भे वसन्नपि मलरकलंकितांगो । ज्ञानत्रयं त्रिभुवनैकगुरुर्बभार । तुंगोदयाद्रि-गहनांतरितोपि धाम । कि नाम मुंचति कदाचन तिग्मरश्मिः ।६--६॥ वे जिनभगवान् गर्भ में निवास करते हुए भी मल से अकलंक अंग युक्त थे । त्रिभुवन के अद्वितीय गुरु उन प्रभु ने मति, श्रत तथा अवधि इन ज्ञानत्रय को धारण किया था। उन्नत उदयाचल के गहन में छिपा हुआ भी तिम्मरश्मि अर्थात् सूर्य क्या कभी अपने तेज को छोड़ता है ? भगवान तो माता के गर्भ में विराजमान हैं। वे चर्म-चक्षुओं के अगोचर अवश्य हैं, किन्तु उनके प्रभाव से माता में वृद्धि को प्राप्त अपूर्व सौन्दर्य तथा ज्ञान का अद्भुत विकास देखकर सभी लोग यह जानते थे, कि इस असाधारण स्थिति का क्या कारण है ? प्राची दिशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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