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________________ तीर्थकर [ २३ पूजा वस्तुत: माता की स्वयं की विशेषता के कारण नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेव की जननी होने के कारण है । यदि ऐसा न होता, तो पहले भी माता की सुरेन्द्रादिकों के द्वारा पूजा तथा सेवा होनी चाहिये थी। सबकी दृष्टि भगवान की ओर केन्द्रित हुआ करती है। सचमुच में जिनेन्द्र की जननी का भाग्य और पुण्य अलौकिक है । नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ में गर्भकल्याणक के प्रकरण में भगवान की माता की आदरपूर्वक पूजा करते हुए यह पद्य लिखा गया है-- विश्वेश्वरे विश्वजगत्सवित्रि पूज्ये महादेवि महासति त्वाम् । सुमङ्गलेऽध्येः बहुमंगलार्थः सम्भावयामो भव नः प्रसन्नाः॥पृष्ठ ३६०॥ हे विश्वेश्वरा, विश्वजगत्-सवित्री, पूज्या, महादेवी, महासती, सुमङ्गला माता! अनेक मङ्गल रूप पदार्थों के अर्ध्य द्वारा हम आपकी समाराधना करते हैं। हे माता ! हम पर प्रसन्न हो । इस अवसर्पिणी में सभी तीर्थंकर स्वर्ग से चलकर भरतक्षेत्र में आए थे। जब स्वर्ग से चय करने को छह माह शेष रहे, तब उन भावी तीर्थंकर रूप पूज्य आत्मा के प्रति सुर समुदाय का महान् आदर भाव उत्पन्न होने लगा था। वर्धमानचरित्र में बताया है कि जिनेन्द्र होने वाले उस स्वर्गवासी देव को सभी देवता लोग प्रणाम करने लगते थे । कवि ने महावीर भगवान के जीव प्राणतेन्द्र के विषय में जो बात लिखी है, वह अन्य तीर्थंकरों के विषय में भी उपयुक्त है । कवि ने लिखा है-- भवल्या प्रणेमुरथ तं मनसा सुरेन्द्र षण्मासशेषसुरजीवितमेत्य देवाः । तस्मादनंतरभवे वितनिष्यमाणं तीर्थ भवोदधि-समुत्तरणकतीर्थम् ॥१७--३०॥ जिनकी देवगति सम्बन्धी आयु के छह माह शेष रहे हैं तथा जो आगामी जन्म में संसार-समुद्र को तर कर जाने के लिए अद्वितीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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