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________________ २२ ] तीर्थकर यह रत्नवर्षा राजभवन में होती थी। वर्धमान चरित्र में कहा है कि तिर्यग्विज़ भक नामके देवगण कुबेर की आज्ञा से चारों दिशा में साढ़े तीन कोटि रत्नों की वर्षा करते थे । (सर्ग १७–श्लोक ३६) सुरांगनाओं द्वारा माता की सेवा अनेक देवांगनाएँ जिनेन्द्र जननी की सेवार्थ राजभवन में पहुँची; श्री देवी भगवान के पिता से कहने लगीं। निर्जरासुर-नरोरगेषु ते कोऽधुनापि गुणसाम्यमृच्छति । अग्रतस्त् सुतरां यतो गुरुस्त्वं जगत्त्रय-गुरोर्भविष्यसि ॥५--२६ धर्मशर्माभ्युदय । देव, असुर, मानव तथा नागकुमारों में अब कौन आपके गुणों से समानता को प्राप्त करेगा, क्योंकि आप त्रिलोक के गुरु के भी गुरु होंगे? इसके पश्चात् वे देवियाँ माता की सेवा के लिए अन्तःपुर में प्रवेश करती हैं। अशग कवि ने लिखा है कि कुण्डल पर्वत पर निवास करने वाली चूलावती, मालनिका, नवमालिका, त्रिशिरा, पुष्पचूला, कनकचित्रा, कनकादेवी तथा वारुणी देवी नाम की अष्टदिक् कन्याएं इन्द्र की आज्ञा से जिनमाता की सेवार्थ गई थीं। पर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन चारों दिशाओं में सामान्य दृष्टि से समानता होते हुए भी पूर्व दिशा को विशेष महत्व इसलिए दिया जाता है कि भूमंडल में अपना उज्वल प्रकाश प्रदान करने वाला भास्कर उसी दिशा में उदय को प्राप्त होता है। प्रभातकाल में सूर्योदय के बहुत पहले से ही पूर्व दिशा में विशेष ज्योति की आभा दिखाई पड़ती है और वह दिशा सबके नेत्रों को विशेष रमणीय लगती है। इसी प्रकार जिनेन्द्र जननी के गर्भ के सूर्य तीर्थंकर परमदेव का जन्म होने के पहले ही अपूर्व सौभाग्य और सातिशय पुण्य की प्रभा दृष्टिगोचर होती है । तीर्थंकर भगवान के जन्म लेने के पहले से ही वह भावी जिनमाता मनुष्यों की तो बात ही क्या देवेन्द्रों तथा इन्द्राणियों के द्वारा भक्तिपूर्वक सेवा तथा पूजा को प्राप्त करती है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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