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- तीर्थकर
घाट सदृश धर्मतीर्थ का प्रसार करने वाले हैं, ऐसे उस प्राणतेन्द्र के समीप जाकर अनेक देवता अन्तःकरण पूर्वक प्रणाम करने लगे थे ।
ऐसी भक्तिपूर्वक समाराधना पूर्णतया स्वाभाविक है । होनहार तीर्थंकर को देवरूप में स्वर्ग में देखकर देवों को, देवियों को तथा देवेन्द्रों को ऐसा ही हर्ष होता है, जैसे सूर्य के दर्शन से कमलों को आनन्द प्राप्त होता है और वे विकास को प्राप्त होते हैं । जिस प्रकार किसी जगह पर कोई अद्भुत निधि अल्पकाल के लिये पा जाए, तो उसके दर्शन के लिये सभी नागरिक और ग्रामवासी गए बिना नहीं रहते; इसी प्रकार छह माह के पश्चात् स्वर्ग को छोड़कर मनुष्य लोक को प्रयाण करने वाली उस परम पावन आत्मा की सभी देव अभिवंदना द्वारा अपने को कृतार्थ अनुभव करते हैं। भगवान छह माह पश्चात् स्वर्गलोक का परित्याग करने वाले हैं इसलिए ही उन पुण्यात्मा का अनुगमन करनेवाली लक्ष्मी छह माह पूर्व ही स्वर्ग से मध्यलोक में रत्नवृष्टि के बहाने से जा रही थी। जिनसेन स्वामी की कल्पना कितनी मधुर है--
संक्रन्दननियुक्तेन धनदेन निपातिता। साभात् स्वसंपदौत्सुक्यात् प्रस्थितेवाग्रतो विभोः ॥१२--१८५।
इन्द्र के द्वारा नियुक्त हुए कुबेर के द्वारा जो रत्नों की वर्षा हो रही थी, वह इस प्रकार शोभायमान होती थी, मानो जिनेन्द्रदेव की सम्पत्ति उत्सुकतावश उनके आगमन के पूर्व ही आ गई हो ।
अयोध्या का सौभाग्य
स्वर्ग से अवतरण के छह मास के समय में जैसे-जैसे दिन न्यून हो रहे थे, वैसे-वैसे यहाँ अयोध्यापुरी की सर्वाङ्गीण श्री, वैभव, सुख आदि की वृद्धि हो रही थी। शीघ्र ही वह समय आ गया, कि देवायु का उदय समाप्त हो गया । मनुष्यगति, मनुष्यायु तथा मनुष्यगत्यानुपूर्वी का उदय आ जाने से वह स्वर्ग की विभूति मानव-लोक में आई और उसने माता मरुदेवी को सोलह स्वप्न-दर्शन
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