SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ ] तीर्थंकर होने लगता है। भरत तथा ऐरावत क्षेत्र म पंचकल्याणक वालेही तीर्थंकर होते हैं। वे देवगति से आते हैं या नरक से भी चयकर मनुष्य पदवी प्राप्त करते हैं। तिर्यंच पर्याय से आकर तीर्थंकर रूप से जन्म नहीं होता है । तिर्यंचों में तीर्थंकर प्रकृति के सत्व का निषेध है । "तिरिये ण तित्थसत्तं" यह वाक्य गोम्मटसार कर्मकाँड (३४५ गा०) में आया है। पंचकल्याणक वाले तीर्थंकर __ पंचकल्याणक वाले तीर्थंकर मनुष्य पर्याय से भी चयकर नहीं आते। वे नरक या देवगति से आते हैं। अपनी पर्याय परित्याग के छह माह शेष रहने पर नरक में जाकर देव होनहार तीर्थंकर के असुरादि कृत उपसर्ग का निवारण करते हैं। स्वर्ग से आने वाले देव के छह माह पूर्व माला नहीं मुरझाती है । त्रिलोकसार में कहा है तित्थयरसंतकम्मुवसग्गं णिरए णिवारयति सुरा। छम्मासाउगसेसे सग्गे अमलाणमालंका ॥१६५॥ भरत क्षेत्र सम्बन्धी वर्तमान चौबीस तीर्थंकर स्वर्ग-सुख भोग कर भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। इनमें नरक से चयकर कोई नहीं आए । आगामी तीर्थकर भगवान महापद्म, अभी प्रथम नरक में चौरासी हजार वर्ष की आयु धारण कर नरक पर्याय में हैं। वे नरक से चयकर उत्सर्पिणी काल के आदि-तीर्थकर होंगे। नरक से निकलकर पाने वाली प्रात्मा का तीर्थंकर रूप में विकास तत्वज्ञों को बड़ा मधुर लगता है, किन्तु भक्त-हृदय को यह ज्ञातकर मनोव्यथा होती है, कि हमारे भगवान नरक से आवेंगे । ईश्वर कर्त त्व सिद्धान्त मानने वालों को तो यह कहकर सन्तुष्ट किया जा सकता है कि नरक के दुःखों का प्रत्यक्ष परिचयार्थ तथा वहाँ के जीवों के कल्याण निमित्त परम कारुणिक प्रभु ने वराहावतार धारणादि के समान नरकावतार रूपता अङ्गीकार की, किन्तु जैन सिद्धान्त के अनुसार उपरोक्त समाधान असम्यक् है । ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy