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________________ तीर्थकर [ १५ स्थिति में उपरोक्त समस्या पर इस दृष्टि से विचार करना तर्कपूर्ण प्रतीत होता है। स्वर्ग या नरक गमन का कारण ___जीव विशुद्ध भावों से पुण्य का संचय कर स्वर्ग जाता है तथा संक्लेश परिणामों के कारण पाप का संग्रह कर नरक जाता है। पुण्य-कर्म को उदयावली द्वारा क्षय करने के लिये जैसे होनहार तीर्थंकर का स्वर्गगमन सुसङ्गत है, उसी न्यायानुसार संचित पाप राशि को उपभोग द्वारा क्षय करने के लिये नरक पर्याय में जाना भी तर्क पूर्ण है। मोक्ष को प्राप्त करने के हेतु संचित पुण्य एवं पाप का क्षय अावश्यक है। ___ जो लोग सम्यक्त्व की अपूर्व महिमा से परिचित हैं, उनकी दृष्टि में इन्द्रिय जनित स्वर्ग का सुख तथा नरक के दुःख समान रूप से अनात्म भाव हैं। प्रात्मसुख का अनुभव करने वाला सम्यक्त्वी जीव हीनावस्था में भी तत्वतः दुःखी नहीं रहता है । सम्यक्त्वी जीव अपने को मनुष्य, देव, नारकी आदि न सोचकर ज्ञानमयी आत्मा अनुभव करता है। तत्वज्ञानी आचार्य अमितगति के शब्दों में वह सोचता है, मेरी आत्मा अकेली है । उसका विनाश नहीं होता । वह मलिनता रहित है, ज्ञान स्वरूपवाली है । शेष समस्त पदार्थ मेरी आत्मा से जुदे हैं । कर्म की विविध विपाकरूप अवस्थाए मेरी नहीं हैं । वे कुछ काल तक टिकनेवाली हैं। __ इस आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर इन्द्रियजनित दुःख के समान इन्द्रियजन्य सुख की स्थिति का बोध होता है । अतः तीर्थकर चाहे नरक से आकर नरपर्याय धारण करें, चाहे सुर पदवी के पश्चात् मानव देह को प्राप्त करें, उनके तीर्थकरत्व में कोई क्षति नहीं पहुचती है। आचार्य श्री १०८ शाँतिसागर महाराज ने एक बार हमसे कहा था, सम्यक्त्व के सद्भाव में चाहे जीव किसी भी पर्याय मे रहे, उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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