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________________ तीर्थकर [ १३ आत्मनिधि के स्वामी होते हुए भी लोकोद्धारिणी, शुभराग रूप विशुद्धभावना का सद्भाव आवश्यक है । उसके बिना क्षायिक सम्यक्त्वी भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं कर सकेगा। क्षायिक सम्यक्त्व मात्र यदि तीर्थंकर प्रकृति का कारण होता, तो सिद्ध पदवी की प्राप्ति के पूर्व सभी केवली तीर्थंकर होते, क्योंकि केवलज्ञानी बनने के पूर्व क्षपर्क श्रेणी प्रारोहण करते समय क्षायिक सम्यक्त्वी होने का अनिवार्य नियम है । भरत क्षेत्र में एक अवसर्पिणी में चौबीस ही तीर्थकर हुए हैं। इतनी अल्पसंख्या ही तीर्थंकर प्रकृति की लोकोत्तरता को स्पष्ट करती है । क्षायिक सम्यक्त्वी होने मात्र से यदि तीर्थकर पदवी प्राप्त होती, तो महावीर तीर्थंकर के समवशरण में विद्यमान ७०० केवली सामान्य केवली न होकर तीर्थंकर केवली हो जाते; किन्तु ऐसा नहीं होता। एक तीर्थकर के समवशरण में दूसरे तीर्थंकर का सद्भाव नहीं होता । एक स्थान पर एक ही समय जैसे दो सूर्य या दो चन्द्र प्रकाशित नहीं होते, उसी प्रकार दो तीर्थंकर एक साथ नहीं पाए जाते हैं। हरिवंशपुराण में कहा है-- नान्योन्यदर्शनं जात चक्रिणां धर्मचक्रिणाम् । हलिनां वासुदेवानां त्रैलोक्यप्रतिक्रिणाम् ॥सर्ग ५४-५६॥ चक्रवर्ती, धर्मचक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव तथा बलदेव इनका और अन्य चक्रवर्ती, धर्मचक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव तथा बलदेव का क्रमश: परस्पर दर्शन नहीं होता है। तीर्थंकर प्रकृति के सद्भाव का प्रभाव तीर्थकर प्रकृति का उदय केवली अवस्था में होता है। "तित्थं केवलिणि" यह आगम का वाक्य है । यह नियम होते हुए भी तीर्थकर भगवान के गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक तथा तपकल्याणक रूप कल्याणकत्रय तीर्थंकर प्रकृति के सद्भाव मात्र से होते हैं । होनहार तीर्थकर के गर्भकल्याणक के छह माह पूर्व ही विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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