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________________ ४ ] तीर्थंकर केवलज्ञान को प्राप्त करता है। जिनेन्द्र भगवान को भाव तीर्थ कहा हैदसण-णाण-चरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सवेपि । तिहि कारणेहि जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं ॥५६०॥९० प्रा० सभी जिनेन्द्र भगवान सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चरित्र संयुक्त हैं। इन तीन कारणों से युक्त हैं, इससे जिन भगवान भाव तीर्थ हैं। जिनेन्द्र वाणी के द्वारा जीव अपनी आत्मा को परम उज्ज्वल बनाता है। ऐसी रत्नत्रय भूषित आत्मा को भाव तीर्थ है। जिनेन्द्र रूप भाव तीर्थंकर के समीप में षोडश कारण भावना को भाने वाला सम्यक्त्वी जीव तीर्थंकर बनता है । रत्न-त्रय-भूषित जिनेन्द्र रूप भाव तीर्थ के द्वारा अपवित्र आत्मा भी पवित्रता को प्राप्त कर जगत् के सन्ताप को दूर करने में समर्थ होती है । इन जिनदेव रूप भाव तीर्थ के द्वारा प्रवर्धमान आत्मा तीर्थंकर बनती है और पश्चात् श्रुत-रूप तीर्थ की रचना में निमित्त होती है । धर्म-तीर्थंकर जिनेन्द्र भगवान के द्वारा धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति होती है इससे उनको धर्म तीर्थंकर कहते हैं । मूलाचार के इस अत्यन्त भाव पूर्ण स्तुति-पद्य में भगवान को धर्म तीर्थंकर कहा है-- लोगुज्जोयरा धम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहते ॥ किलण केवलिमेव य उत्तमवोहि मम दिसंतु ॥५३६॥ जगत् को सम्यकज्ञान रूप प्रकाश देने वाले धर्म तीर्थ के कर्ता, उत्तम, जिनेन्द्र, अर्हन्त केवली मुझे विशुद्ध बोधि प्रदान करें अर्थात् उनके प्रसाद से रत्न-त्रय-धर्म की प्राप्ति हो । तीर्थकर शब्द का प्रयोग तीर्थंकर शब्द का प्रयोग भगवान महावीर के समय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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