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________________ तीर्थकर दसरा भाव तीर्थ । द्रव्य तीर्थ के विषय में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया गया है दाहोपसमण-तण्हा-छेदो-मलपंकपवहणं चैव । तिहि कारणेहि जत्तो तम्हा तं दवदो तित्थं ॥५५६॥ द्रव्य तीर्थ में ये तीन गुण पाए जाते हैं । प्रथम तो सन्ताप शान्त होता है, द्वितीय तृष्णा का विनाश होता है तथा तीसरे मल-पॅक की शुद्धि होती है । इस कारण प्राचार्य ने “सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं"-शास्त्र रूप धर्म को तीर्थ कहा है । जिनवाणी रूप गंगा में अवगाहन करने से संसार का सन्ताप शान्त होता है, विषयों की मलिनता का निवारण होता है । अतएव जिनवाणी को द्रव्य तीर्थ कहना उचित है । श्रुत तीर्थ स्वरूप जिनवाणी के विषय में भागचंद जी का यह भजन बड़ा मार्मिक है : सांची तो गङ्गा यह वीतराग वानी, अविच्छिन्न धारा निजधर्म की कहानी ॥टेक॥ जामें प्रति ही विमल अगाध ज्ञान पानी। ____ जहाँ नहीं संशयादि पंक की निशानी ॥१॥ सप्तभङ्ग जहँ तरङ्ग उछलत सुखदानी । संत चित्त मराल वृन्द रमें नित्य ज्ञानी ॥२॥ कवि के ये शब्द विशेष ध्यान देने योग्य हैं :जाके अवगाहन तै शुद्ध होय प्रानी । __ भागचंद निहचै घट मांहि या प्रमानी ॥३॥ सरस्वती पूजन में कहा है - इह जिणवर वाणि विसुद्ध मई, जो भवियण णिय मण धरई । सो सुर-णरिद-संपइ लहइ, केवलणाण वि उत्तरई ॥ जो विशुद्ध बुद्धि भव्य जीव इस जिनवाणी को अपने मन में स्थान देता है, वह देवेन्द्र तथा नरेन्द्र की विभूति प्राप्त करते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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