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तीर्थकर
[ ५ अन्य सम्प्रदायों में भी होता था, यद्यपि प्रचार तथा रूढ़िवश तीर्थंकर शब्द का प्रयोग जिनेन्द्र भगवान के लिये किया जाता है । जैन शास्त्रों में भी तीर्थंकर शब्द का प्रयोग श्रेयांस राजा के साथ करते हुए उनको दान-तीर्थंकर कहा है । अतएव तीर्थंकर शब्द के पूर्व में धर्म शब्द को लगा कर धर्म तीर्थंकर रूप में जिनेन्द्र का स्मरण करने की प्रणाली प्राचीन है।
साधन रूप सोलह भावनाएँ
समीचीन धर्म की व्याख्या करते हुए प्राचार्य समंतभद्र ने लिखा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र रूप धर्म है, जिससे जीव संसार के दुःखों से छुटकर श्रेष्ट मोक्ष सुख को प्राप्त करता है । इस धर्म तीर्थ के कर्ता इस अवसर्पिणी काल की अपेक्षा वृषभदेव आदि महावीर पर्यन्त चौबीस श्रेष्ठ महापुरुष हुए हैं । तीर्थंकर का पद किसी की कृपा से नहीं प्राप्त होता है । पवित्र सोलह प्रकार की भावनाओं तथा उज्ज्वल जीवन के द्वारा कोई पुण्यात्मा मानव तीर्थकर पद प्रदान करने में समर्थ तीर्थंकर प्रकृति नाम के पुण्य कर्म का बंध करता है । यह पद इतना अपूर्व है कि दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण इस अवसर्पिणी काल में केवल चौबीस ही तीर्थकरों ने अपने जन्म द्वारा इस भारत क्षेत्र को पवित्र किया है। असंख्य प्राणी रत्नत्रय की समाराधना द्वारा अर्हन्त होते हुए सिद्ध पदवी को प्राप्त करते हैं, किन्तु भरत क्षेत्र में तीर्थंकर रूप में जन्म धारण करके मोक्ष आमे वाले महापुरुष चौबीस ही होते हैं । ऐरावत क्षेत्र में भी यही स्थिति है।
*जिनसेन स्वामी ने महापुराण में बताया है कि ऋषभ भगवान को आहार देने के पश्चात् चक्रवर्ती भरत द्वारा राजा श्रेयांस के लिये दामतीर्थकर तथा महापुण्यवान् शब्द कहे गए थे। ग्रन्थकार कहते हैंत्वं दामतीर्थकृत् श्रेपान त्वं महापुण्यभागसि ॥ पर्व २०, १२८. महापुराण ।।
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