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नीर्थकर
सिद्धायिनी-यक्षयक्षीसमेताय नाथवंशाय पावापुरमनोहरवनांतरे बहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले परिनिर्वृताय श्रीमहावीरवर्धमानतीर्थेश्वराय नमस्कारं कुर्वे ।"
भूतकालीन चौबीस तीर्थंकर
"निर्वाण-सागर-महासाधु-विमलप्रभसु-दत्त-अमलप्रभ-उद्धरअंगिर-सन्मति-सिंधु-कुसुमांजलि-शिवगरण-उत्साह-ज्ञानेश्वर-परमेश्वरविमलेश्वर-यशोयर-कृष्णमति-ज्ञानमति-शुद्धमति-श्रीभद्र-अतिक्रान्तशांताश्चेति भूतकालसंबन्धि-चतुर्विशति-तीर्थकरेभ्यो नमो नमः ।
भविष्यकालीन चौबीस तीर्थंकर
महापद्म-सुरदेव-सुपार्श्व-स्वयंप्रभ-सर्वात्मभूत-देवपुत्र-कुलपुत्रउदंक-प्रौष्ठिल-जयकीर्ति-मुनिसुव्रत-अर-निष्पाप-निष्करणय-विपुलनिर्मल-चित्रगुप्त-स्वयंभू-अनिवर्तक-जय-विमल-देवपाल-अनंतवीर्याश्चेति-भविष्यत्कालसंबन्धि-चतुर्विंशति-तीर्थकरेभ्यो नमो नमः ।
पञ्चविदेहस्थित विशति तीर्थंकर
सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-सुजात-स्वयंप्रभु-वृषभाननअनन्तवीर्य-सुरप्रभ-विशालकीर्ति-बज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-भुजंगमईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीर्याश्चेति-विदेहक्षेत्रस्थित-विंशति-तीर्थकरेभ्यो नमो नम:।"
भगवान के उपदेश का मर्म
जिनेन्द्र भगवान के कथन को एक ही गाथा द्वारा महामुनि कुंदकुंद स्वामी इस प्रकार व्यक्त करते हैं :
रत्तो बंषदि कम्मं मुंचति जीवो विरागसंजुसो। एसो जियोवएसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०॥समयसार
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