________________
तीर्थकर
[ ३१५ रागी जीव कर्मों का बंध करता है, वैराग्य-संपन्न जीव बंधन से मुक्त होता है; यह जिन भगवानका उपदेश है; अतः हे भव्य जीवो ! शुभ अशुभ कर्मों में राग भाव को छोड़ो।
अभिवंदना
हम त्रिकालवर्ती तीर्थंकरों को इन विनम्र शब्दों द्वारा प्रणामांजलि अर्पित करते हैं :
सकल लोक में भानु सम तीर्थकर जिनराय । प्रात्म-शुद्धि के हेतु मैं वंदों तिनके पाय ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org