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________________ ३०४ ] तीर्थकर इन विकासहीन दुःखी निगोदिया जीवों की विचित्र कथा है। अत्थि अणंताजीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो। भाव-कलंक-सुपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति ॥१९७॥ गो० जी०॥ उन तिर्यंचगति के जीवों में ऐसे जीव भी अनंत संख्या में हैं, जिन्होंने अब तक त्रस पर्याय नहीं प्राप्त की है। वे मलिनता-प्रचुर भावों के कारण निगोदवास को नहीं छोड़ पाते हैं। अभव्यों की संख्या ऐसी जीवों की स्थिति विचारते हुए किसी महान आत्मा का निर्वाण प्राप्त करना कितनी कठिन बात है, यह विवेकी व्यक्ति सोच सकते हैं । जीव राशि में एक संख्या अभव्य जीवों की है, जिनका कभी निर्वाण नहीं होगा और वे संसार परिभ्रमण करते ही रहेंगे । भव्यों की अपेक्षा उनकी संख्या अत्यन्त अल्प है । अभव्य राशि को अनंत गुणित करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, उससे भी अनंत गुणित सिद्धों की राशि कहीं गई है। गोम्मटसार कर्मकांड में लिखा है-- सिद्धारपंतिमभागं प्रभव्यसिद्धादरपंतगरणमेव । समयपबद्धं बंधदि जोगवसादो विसरित्थं ॥४॥ सिद्धराशि के अनंतवें भाग तथा अभव्यराशि से अनंत गुणित प्रमाण एक समय में कर्मसमूह रूप समय-प्रबद्ध को यह जीव बांधता है। यह बंध योग के अनुसार विसदृश होता है अर्थात् कभी न्यून, कभी अधिक परमाणुओं का बंध होता है । जीवप्रबोधिनी टीका में उपरोक्त कथन इस प्रकार किया गया है : "सिद्धराश्यनंतकभागं, प्रभव्यसिद्धेभ्योऽनंतगुणं तु-पुनः योगवशात् विसवृशं समयप्रबद्धं बध्नाति । समय समये प्रबध्यते इति समयप्रबद्धः"। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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