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________________ तीर्थंकर [ ३०३ सिद्धों को प्रणाम करने वाला व्यक्ति लोकाग्रभाग में विराजमान समस्त मुक्त आत्माओं को प्रणाम करता है । निर्वाण भूमि की वंदना में एक विशेष आनन्द की बात यह रहती है कि चरण चिन्हों के समीप खड़े होकर हम कल्पना के द्वारा उस स्थान के ठीक ऊपर सिद्धलोक में विराजमान भगवान का विचार करके उनको प्रणाम कर सकते हैं। उस जगह के ठीक ऊपर सिद्ध रूप में भगवान हैं, यह हम ज्ञान नेत्र से देख सकते हैं । जैनधर्म में ये कृतकृत्य सिद्ध जीव ही परमात्मा माने गए हैं। सिद्धों की संख्या मुलाचार में सिद्धों के विषय में अल्पबहुत्व पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है : मणुसगदीए थोवा तेहि असंखिज्जगुणा णिरये।। तेहि असंखिज्जगुणा देवगदीए हवे जीवा ।१७०। पतिथधिकार। सबसे कम जीव मनुष्य गति में हैं। उनसे असंख्यातगुणें नरकगति में हैं। नारकियों से असंख्यातगुणें देवगति में हैं। तेहितोगतगुणा सिद्धगदीए भवंति भवरहिया। तेहितोणतगुणा तिरयगदीए किलेसंता ॥१७१॥ देवगति के देवों की अपेक्षा सिद्धगति में संसार परिभ्रमण रहित अनंतगुणे सिद्ध भगवान हैं। उन सिद्धों से अनंतगुणे जीव तिर्यंचगति में क्लेश पाते हैं। तिर्यंचों में भी निगोदिया एकेन्द्रिय जीव अनंतानंत हैं। एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो विट्ठा। सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ॥१९६॥ गो० जी०॥ सिद्धराशि से अनंतगुण तथा सर्व व्यतीत काल से अनंतगुणे जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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