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गीताभक्त को कृष्ण महाराज की चेतावनी है कि दुष्कर्म करने वाला अत्यन्त निंद्य योनि में जाकर कष्ट पाता है । भगवान का नाम जब 'श्रमरण' हैं, तब श्रमण संस्कृति विद्वेष योग्य नहीं ममता की वस्तु बन जाती है ।
विष्णु सहस्रनाम में कहा है :
"प्रादि देवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरु ॥६५॥
( यहां आदिनाथ ऋषभदेव का द्योतक प्रादिदेव शब्द है । उनको महादेव भी कहते हैं )
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ॥८२॥
यहां 'दीर' शब्द चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की स्मृति कराता है, जिन्हें वीर, महावीर, प्रतिवीर, सन्मति और वर्धमान इन पाँच नामों द्वारा संकीर्तित किया जाता है । विष्णु भक्त भी जैन के समान "वीराय नमः" पाठ पढ़ता है । ऐसी सुन्दर समन्वयात्मक सामग्री के होते हुए भी कहीं २ विद्वेषवर्धक सामग्री क्यों प्राप्त होती है, ऐसी शंका की जा सकती है । गंभीर विचार करने पर पता चलेगा कि तमोगुण प्रधान व्यक्तियों ने बुद्धि की प्रखरता से उच्च अभ्यास कर लिया । वे अंतःकरण स्थित मलिनता से प्रेरित हो ऐसी रचनाएं बनाते हैं, जिनसे मनुष्य अपने कर्तव्य से च्युत हो अधम कर्म करके आसुरी योनि में जाने की सामग्री संचय करता है । सत्पुरुष के समीप की विद्या प्रेम की ज्योत्स्ना द्वारा विश्व को सुखी बनाती है तथा वही विद्या तमोगुणी आदि होन व्यक्तियों का आश्रय पा दृष्टिविष सर्पराज का रूप प्राप्त कर सर्वत्र संहार और विनाश का कार्य करती है । सज्जन की विद्या स्नेह की गंगा प्रवाहित करती है । पापी, असूयाभाव वाले दुष्ट का ज्ञान क्रूरता की वैतरणी बहती है । इस प्रकाश में धार्मिक उपद्रवों द्वारा धर्म को बदनाम करने वाले काले कारनामों का रहस्य समझा जा सकता है । नीतिकार का यह कथन अत्यन्त मार्मिक और विवेकपूर्ण है :
साक्षराः विपरीताश्व त्राक्षसा एव सरसः विपरीतश्च ेत सरसत्वं न साक्षर व्यक्ति यदि विपरीत होते हैं,
केवलम् । मुंचति ॥
तो वे राक्षस हो जाते हैं । ( साक्षरा को विपरीत क्रम अर्थात उल्टे रूप में पढ़ो 'राक्षसा' बनता है ) । सरस अर्थात सात्विकता के रस से परिपूर्ण व्यक्ति विपरीत होने पर भी 'सरस' रहता है ( 'सरस' को उल्टा पढ़ने पर भी सरस रहता है ) |
हमारी दृष्टि से भारत शासन को अपनी 'सेक्यूलर' ( Secular ) धर्म निरपेक्ष नीति अथवा सर्वधर्म समभाव की दृष्टि को जनता के मानस में
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