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________________ ( २२ ) प्रतिष्ठित कराने के लिए अशोक की पद्धति को अपनाकर प्रमुख सार्वजनिक स्थलों में धार्मिक मैत्री तथा समन्वय की भावना को प्रबुद्ध करने वाली सामग्री स्तंभों आदि में अंकित कराना चाहिए, जिससे मनुष्य गांधीजी के शब्दों में 'धर्मान्धता की बीमारी' (Insanity) से मुक्त हो। ___ हमारा कर्तव्य है कि हम अशोक तथा उसके पूर्ववर्ती भारत के धार्मिक उदारता की नीति को अपनावें। सम्राट बिम्बसार (महाराज श्रेणिक) बौद्धधर्म के भक्त थे और उनकी महारानी चेलना जैनधर्म की प्रगाढ़ श्रद्धा समः. त थी। इस धार्मिक विभिन्नता से उनके व्यक्तिगत जीवन में कटुता का जागरण नहीं होता था। धार्मिक प्रतिद्वंद्विता भी चलती थी। चेलना ने श्रेणिक के अन्तः करण में जैनधर्म का महत्व अंकित करा दिया, इससे वह सम्राट् परम धार्मिक जैन बन गया। एक ही संस्कृति के संरक्षकों में विद्वेष का सद्भाव देख उन चेलों की कहानी स्मरण आती है, जो अपने गुरु के पैरों को दाब रहे थे। एक शिष्य से गुरुजी के दूसरे पैर को धक्का लग गया। इस पर रुष्ट हो उस शिष्य ने दूसरे पैर को जोर से मार दिया। उसने यह नहीं सोचा कि ये दोनों पांव भिन्न होते हुए भी गुरुजी से तो अभिन्न हैं। इस अविवेक का फल यह हुआ कि उन शिष्यों ने रोगी गुरुजी के पैरों को कुचलकर गुरुजी की दुर्दशा कर दी थी। उन्होंने अपने पैर से भिन्न पैर को शत्रुभाव से देखकर उसको दंडित किया। इस दण्ड का अंतिम फल यह हुआ कि बेचारे गुरुजी कष्ट में पड़ गए। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति के अविभाज्य अंग भारतीय मूर्ख शिष्यों का अनुकरण कर संस्कृति के भिन्न २ अंगों को क्षति पहुंचाते हुए हर्ष का अनुभव करते हैं। उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि यदि हमने श्रमण संस्कृति के प्राराधक जैनों को कष्ट पहुंचाया, उनके मूर्ति, मंदिरों को नष्ट किया, उनके साधुओं की निन्दा आदि की तो हम भारतीय संस्कृति पर ही प्रहार कर रहे हैं। संकीर्ण दृष्टिकोण को अपनाने पर एक ही संप्रदाय वाले विद्वेषाग्नि में जलते हैं। स्वतंत्र भारत के नागरिक को स्मरण रखना होगा, कि अब इस अणु युग में धर्म वालों ने मैत्री भाव का परित्याग किया, तो भौतिक विज्ञान के जाज्वल्यमान ज्वालामुखी के द्वारा उनका अस्तित्व भी संकट में पड़ जायगा। चतुर मानव अपने दुर्लभ मनुष्य जीवन को राक्षसी आचार-विचार से मलिन न बनाकर उसे मैत्री की भावना से समलंकृत करता है । इस अणुयुग में धर्म का विरोधी तत्व बढ़ रहा है। वह उद्वेलित सागर का रूप धारण कर रहा है । ऐसी स्थिति यदि ध्यान में नहीं रखी गई, तो आगे भीषण और अवर्णनीय दुर्दशा का सामना करना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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