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________________ ( २० ) तीर्थंकर की प्राराधना करता है। इस परम सत्य पर दृष्टि देने से धार्मिक उदारता, मैत्र तथा सांस्कृतिक समन्वय के भाव जागृत होते हैं। जैन संस्कृति की श्रमण संस्कृति रूप में प्रसिद्धि है। श्रमण का स्वरूप कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार में इस प्रकार किया है : सम-सत्तु-बंधु-वग्गो समसुहन्दुक्खो पसंसरिणदसमो। सम-लोट्ठ-कंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥३-४१ श्रमण वह है, जो शत्रु-बंधु वर्ग में साम्यभाव रखता है, जो सुख-दुख में समान है, प्रशंसा-निंदा में समान है; कचन और मृत्तिका में समान भाव युक्त है तथा जीवन और मरण में साम्य भाव युक्त है । __अशोक ने अपने अभिलेखों में जैन धर्म को 'समण धम्म' रूप से कहा है। महावीर भगवान को जैन शास्त्रों में महा श्रमण कहा है। विष्णु सहस्र नाम में परमात्मा को 'श्रमरण' कहा है : भारभत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः । प्राश्रमः भ्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहन ॥ १०४ ॥ गीता के 'स्थितप्रज्ञ मुनि' के चित्रण से श्रमण का स्वरूप स्पष्ट होता है । दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतराग-भय-क्रोषः स्थितषीनिरुच्यते ॥ २-५६ गीता ॥ समन्वय की भावना को दूरकर जो व्यक्ति अहकार द्वेषादि की मलिनता पूर्ण मनोवृत्ति धारण करते हैं, वे व्यक्ति गीताकार के मत से शूकर कुकर आदि की आसुरी योनि में जन्म धारण करते हैं। कृष्ण महाराज अर्जुन से कहते हैं : अहंकारं बलं वर्ष कामं क्रोधं च संश्रिताः। मामात्म-पर-देहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १६-१८ ॥ तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् । मिपाम्यजल मशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १६-१९ ॥ अहंकार, बल, अभिमान, काम, क्रोध को प्राप्त हुए, दूसरों की निन्दा करने वाले अथवा दूसरों से ईर्षा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के देहों में विद्यमान मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। ___ उन द्वेष करने वाले पापाचारी, क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बारम्बार प्रासुरी योनियों में (शूकरादि की पर्यायों में) ही गिराता हूं, अर्थात् पापी व्यक्ति वास्तव में ईश्वर का शत्रु है और वह नरकादि में जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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