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प्रकट करने की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार ( Fundamental Rights ) के रूप में मान्य किया है। इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति डाक्टर राधाकृष्णन ने सन् १९६३ की महावीर जयंती के अवसर पर ५ अप्रेल को देहली के अपने महत्वपूर्ण भाषण में प्रकाश डालते हुए कहा था 'हम धर्म निरपेक्ष (Secular) दृष्टिकोण को अपनाते हैं, जो जैन धर्म का अनेकान्त का अनुपम सिद्धान्त है। अहिंसा प्रेम का सिद्धान्त है । विज्ञान और अध्यात्म के मेल से मानवजाति सुख की ओर अग्रसर हो सकती है। भारत सरकार जैन धर्म के सिद्धान्तों को मानकर ही चल रही है।"
तुलनात्मक धर्म का अभ्यासी सात्विक वृत्तिवाला व्यक्ति विविध धर्मग्रन्थों का परिशीलन करे तो उसे धार्मिक एकता को परिपुष्ट करने योग्य विपुल सामग्री मिलेगी। जैनधर्म में परमात्मा को तीर्थकर, परमेष्ठी, विष्णु वृषभ वीर, वर्धमान अादिनाथ आदि शब्दों द्वारा संकीर्तित किया है । भगवज्जिनसेन प्राचार्य ने जिन सहस्र नाम में उक्त नामों के सिवाय अन्य पवित्र नाम बताए हैं जिनका वैदिक तथा बुद्ध धर्म के वाङमय में भी प्रयोग होता है । विष्णु सहस्रनाम में पूर्वोक्त जैन धर्म के शब्द मिलते हैं। उनको स्मरण कर प्रात्मा निर्मल तथा पवित्र बनती है। विष्णु सहस्रनाम के ये पद्य ध्यान देने योग्य है :
वृषाही 'वृषभो' विष्णुर्वषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो 'वर्धमानश्च' विविक्तः श्रुतिसागरः ॥४१॥ यहाँ वृषभ ( वृषभदेव ) और वर्धमान ( म. वीर भगवान ) का उल्लेख है।
ऋतुः सुदर्शनः काल : परमेष्ठी परिग्रह : ॥५८॥ यहाँ परमेष्ठी शब्द ध्यान देने योग्य है। स्वामी समंतभद्र ने रत्नकरंड श्रावकाचार में जिनेन्द्र भगवान को प्राप्त कहते हुए उन्हें परमेष्ठी कहा है।
परमेष्ठी परंज्योति विरागो विमलः कृती।
सर्वज्ञोनादि-मध्यान्तः शास्ता सार्वोपलाल्यते ॥ जैन धर्म में अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु को पंच परमेष्ठी कहा है । जैनधर्म में “परमेष्ठिने नमः" कहते है । यही पाठ 'परमेष्ठिने नमः' वैदिक हिन्दू सहस्रनाम में पढ़ता है । एक जाह विष्णु सहस्रनाम में लिखा है:
मनोजवस्तीर्थकर वसुरेता वसुप्रदः ।।८७॥ ___ यहां जगत में प्रसिद्धि प्राप्त तीर्थकर शब्द द्वारा प्रभु का पुण्य मरण किया गया है। पिष्ण भक्त भी "तीर्थकराय नमः" पाठ पढ़ता है। वह भी
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