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तीर्थकर
[ २९९ नहीं रहता । विदेह में नित्य मोक्षमार्ग है, कारण वहां दुषमासुषमा काल का सदा सद्भाव पाया जाता है। वहां तो ऐसा होता है कि एक तीर्थंकर के समक्ष कोई भव्य तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है । जब गुरुदेव तीर्थंकर मोक्ष चले गए, तो उस समय इस चरम शरीरी आत्मा के दीक्षा लेने पर तपादि कल्याणकों के क्रम में बाधा नहीं आती। दो तीर्थंकरों का परस्पर में दर्शन नहीं होता, जैसे दो चक्रवतियों आदि का भी परस्पर दर्शन नहीं होता । भरत तथा ऐरावत में ऐसी पद्धति है कि एक तीर्थंकर के समीप किसी ने तीर्थकर प्रकृति क बंध किया है जैसे श्रेणिक राजा ने वीर भगवान के सानिध्य में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था। उसके उपरान्त वह जीव या तो स्वर्ग में जायगा, या नरक में जायगा, इसके पश्चात वह तीसरे भव में तीर्थंकर होकर मुक्त होता है ।
विदेह नित्य धर्मभूमि है, अतएव वहां चरम शरीरी जीव तीर्थंकर प्रकृति का बंधकर उसी भवमें मोक्ष जाता है । भरतक्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र में एक ही भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके उसी भव से मोक्ष जाने का क्रम नहीं है । बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कल्पकाल में भरत तथा ऐरावत में चौबीस तीर्थंकर उत्सर्पिणी में तथा चौबीस ही अवसर्पिणी में होगे। विदेह का हाल अपूर्व है । इतने लम्बे काल में वहां से विपुल संख्या में तीर्थंकर मुक्ति प्राप्त करते हैं । एक कोटि पूर्व की आयु प्राप्त कर मोक्ष जाने के पश्चात् दूसरे तीर्थंकर की उत्पत्ति होने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है ।
सिद्धलोक और कर्मभूमि का क्षेत्रफल
कर्मभूमियों से ही जीव सिद्ध होते हैं, किन्तु सिद्धलोक का क्षेत्र पैतालीस लाख योजन प्रमाण कहा है, उसमें कर्मभूमि तथा भोगभूमियों का क्षेत्र आ जाता है। अतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या देवकुरु, उत्तरकुरु, हैमवत क्षेत्र, हरिक्षेत्र, रम्यक क्षेत्र, हैरण्यवत
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