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तीर्थंकर १०६) । तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ मनुष्य गति में होता है, उसका निष्ठापन देवगति-तथा नरकगति में भी होता है ।
तीर्थकर का निर्वाण
तीर्थंकर रूप में जन्म धारण करने वाली आत्मा क गभ, जन्म, तप तथा ज्ञान कल्याणक होते हैं। इन अवस्थानों में तीर्थंकर प्रकृति का अस्तित्व रहता है । प्रयोग केवली के अंतिम समय में तीर्थंकर प्रकृति का क्षय हो गया, अतः उसकी सत्ता शेष नहीं रही। निर्वाण प्राप्त सिद्ध जीव के तीर्थंकर प्रकृति नहीं है । उनका निर्वाणकल्याणक किस प्रकार तीर्थंकर का निर्वाण कल्याणक कहा जायेगा ? अब तो वे तीर्थंकर पद वाच्यता से अतीत हो चुके हैं; अतएव सूक्ष्म दृष्टि से तीर्थंकर नामकर्म सहित आत्मा के गर्भ, जन्म, दीक्षा तथा ज्ञान कल्याणक कहे जायेंगे।
यहां यह शंका उत्पन्न होती है कि आगम में तीर्थंकर को पंचकल्याणक-संपन्न (पंचकल्लाण-संपण्णाणं) क्यों कहा है ? इसके समाधान में यही कहा जायगा, कि भूतपूर्व नैगम नय की अपेक्षा यह कहा जाता है । एवंभूतनय की अपेक्षा ऐसा नहीं कहा जा सकता। जैन धर्म का सौन्दर्य उसकी स्याद्वादमयी पवित्र देशनामें हैं, जिसके कारण अविरोध रूप से पदार्थ का कथन होता है। उसी स्याद्वाद से इस प्रश्न पर दृष्टि डालने पर शंका दूर हो जाती है ।
भरत तथा ऐरावत में पंचकल्याणक वाले ही तीर्थंकर क्यों होते हैं, विदेह के समान तीन अथवा दो कल्याणक संपन्न महापुरुष क्यों नहीं होते ? इसका विशेष कारण चिंतनीय है । भरत तथा ऐरावत में एक उत्सर्पिणी में चौबीस तीर्थंकर होते हैं और अवसर्पिणी में भी चौबीस होते हैं। अवसर्पिणी के चौथे काल में तथा उत्सपिणी के तीसरे काल में इनका सद्भाव माना गया है। दुषमासुषमा काल के सिवाय अन्य कालों के होने पर इन स्थानों में मोक्षमार्ग
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