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________________ तीर्थकर [ २८५ से जो सुख होता है, उतना सुख सिद्ध पगवान को क्षण मात्र में प्राप्त होता है। सुख-दुःख की मीमांसा सुख और दुःख की सूक्ष्मता पूर्वक मीमांसा की जाय, तो ज्ञाता होगा, कि सच्चा सुख तथा शांति भोग में नहीं, त्याग में है । भोग में तृष्णा की वृद्धि होती जाती है। उससे अनाकुलता रूप सुख का नाश होता जाता है । इन्द्रियजनित सुख का स्वरूप समझाते हुए प्राचार्य कहते हैं, तलवार की धार पर मधु लगा दिया जाय । उसको चांटत समय कुछ आनन्द अवश्य प्राप्त होता है, किन्तु जीभ के कटने से अपार वेदना होती है। विषयजनित सुखों को दुःख कहने के बदले में सुखाभास नाम दिया गया है । परमार्थ दृष्टि से यह सुखाभास दुःख ही है । पंचाध्यायी में वैषयिक सुख के विषय में कहा है : "नह तत्सुखं मुखाभासं किन्तु दुःखमसंशयम्" ॥२३८॥ वह इन्द्रियजन्य सुख सुखाभास है । यथार्थ में वह दुःख ही है। शक्र-चक्रधरादीनां केवलं पुण्यशालिनाम् तृष्णाबीजं रतिस्तेषां सुखावाप्तिः कुतस्तनी ॥२-२५७॥ महान पुण्यशाली इन्द्र, चक्रवती आदि जीवों के तृष्णा के बीज रूप रति अर्थात् आनन्द पाया जाता है । उनके सुख की प्राप्ति कैसे होगी ? इन्द्रियजनित सुख कर्मोदय के अधीन है। सिद्धों का सुख स्वाधीन है। इन्द्रिय जन्य सुख अंत्र सहित है, पाप का बीज है तथा दुःखों से मिश्रित है । सिद्धावस्था का सुख अनंत है। वहां दुःख का लेश भी नहीं है; कारण विघ्नकारी कर्मों का पूर्ण क्षय हो चुका है। निर्वाण अवस्था नियमसार में कहा है : पवि कम्मं णोकम्म पवि चिता व अट्टाहाणि । नवि धम्म-सुक्कन्नाणे तस्येव होइ मिव्याणं ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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