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________________ २८४ ] तीर्थकर मोक्ष का सुख तत्वार्थसार में एक सुन्दर शंका उत्पन्न कर उसका समाधान किया गया है। __स्यादेतदशरीरस्य जंतोनष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्युत्तरं श्रृणु ॥४६॥ मोक्ष तत्वम् ॥ प्रश्न-अष्ट कर्मों के नाश करने वाले शरीर रहित मुक्तात्मा के कैसे सुख पाया जायगा ? शंकाकार का अभिप्राय यह है कि शरीर के होने पर सुखोपभोग के लिए साधन रूप इन्द्रियों द्वारा विषयों से आनन्द की उपलब्धि होती थी। मुक्तावस्था में शरीर नाश करने से सुख का सद्भाव कैसे माना जाय ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्राचार्य इस प्रकार समाधान करते हैं। समाधान सुख शब्द का प्रयोग लोक में विषय, वेदना का अभाव, विपाक तथा मोक्ष इन चार स्थानों में होता है। लोके चतुष्विहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च ॥४७॥ सुखं वायुः, सुखं वन्हिः-यह पवन आनन्ददायी है। यह अग्नि अच्छी लगती है । यहाँ सुखके विषय में सुख का प्रयोग हुआ है । दुःख का अभाव होने पर पुरुष कहता है-'सुखितोऽस्मि'--में सुखी हूँ। पुण्यकर्म के विपाक से इन्द्रिय तया पदार्थ से उत्पन्न सुख प्राप्त होता है । श्रेष्ठ सुख की प्राप्ति, कर्मक्लेश का अभाव होने से, मोक्ष में होती है । मोक्ष के सुख के समान अन्य प्रानन्द नहीं है, इससे उस सुख को निरूपम कहा है। त्रिलोकसार में लिखा है चक्कि-कुरु-फणि-सुरेंदे- अहमिदे में सुहं तिकालभवं। तत्तो प्रणंतगुणिरं सिद्धार्थ खनसुहं होदि ॥५६०॥ चक्रवर्ती, कुरु, फणीन्द्र, सुरेन्द्र, अहमिन्द्रों में जो क्रमशः अनन्त मुणा सुख पाया जाता है; उनके सुखों को अनंत मुणित करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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