SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर [ २८३ बांधा था, और जीव ने भी कर्मों को पकड़ लिया था। उस अवस्था में जीव और पद्गल में विकार उत्पन्न होने से वैभाविक परिणमन हुआ था। मोक्ष होने पर जैसे जीव स्वतंत्र हो जाता है, उसी प्रकार बंधन-बद्ध कर्म रूप परिणत पुद्गल भी स्वतंत्र हो जाता है । जीव की स्वतंत्रता का फिर विनाश नहीं होता, किन्तु पुद्गल पुनः अशुद्ध पर्याय को प्राप्त कर अन्य मंसारी जीवों में विकार उत्पन्न करता है । दोनों की स्वतंत्रता में इतना अंतर है । निर्वाण और मृत्यु का भेद भगवान के निर्वाण का दिन यथार्थ में 'आध्यात्मिक स्वाधीनता दिवस' है । निर्वाण तथा मृत्यु में अंतर है। संसार में आयु कर्म के नष्ट होने के पूर्व ही आगामी भव की आयु का बंध होता रहा है । वर्तमान आयु का क्षय होने पर वर्तमान शरीर का परित्याग होता है । पश्चात् जीव पूर्वबद्ध आयु कर्म के अनुसार अन्य देह को धारण करता है। इस प्रकार मृत्यु का संबंध आगामी जीवन से रहता है । मोक्ष में ऐसा नहीं होता है । परिनिर्वाण की अवस्था में प्राय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से जन्म-मरण की शृंखला सदा के लिए समाप्त हो जाती है। इस पंचम काल में संहनन की हीनता के कारण मोक्ष के योग्य शुक्ल-ध्यान नहीं बन सकता है, अतः भरत क्षेत्र से मोक्ष गमन का अभाव है। सामान्य लोग निर्वाण के प्रांतरिक मर्म का अवबोध न होने से लोक प्रसिद्ध व्यक्ति की मृत्यु को भी परिनिर्वाण या महानिर्वाण कह देते हैं। संपूर्ण परिग्रह को त्याग कर दिगम्बर मुद्राधारी श्रमण बनने वाले व्यक्ति को रत्नत्रय की पूर्णता होने पर ही मोक्ष प्राप्त होता है। जो हिंसामय धर्म से अपने को उन्मुक्त नहीं कर पाए हैं, उनकी मृत्यु को निर्वाण मानना असम्यक् है । वीतरागता के पथ को स्वीकार किए बिना निर्वाण असंभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy