SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ ] तीर्थकर सिद्ध भगवान के कर्म तथा नोकर्म नहीं हैं। चिन्ता नहीं है । आर्त तथा रौद्र ध्यान नहीं है। धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान नहीं है । ऐसी अवस्था ही निर्वाण है । निर्वाण तथा सिद्धों में अभेद कुंदकुंदस्वामी ने यह भी कहा है :-- णिवाण मेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुट्टिा। कम्मविमक्को अप्पा गच्छइ लोयग्ग-पज्जतं ।।१८३॥नियमसार। __ निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्वाण हैं (दोनों में अभेदपना है)। कर्मों से वियुक्त आत्मा लोकान पर्यन्त जाती है। सिद्धों के सुख का रहस्य भोजन-पानादि द्वारा सुख का अनुभव संसारी जीवों को है । मुक्ति में ऐसी सामग्री का अभाव होने से कैसे सुख माना जाय ? यह शंका स्थूलदृष्टि बालों की रहती है । इसके समाधानार्थ 'सिद्धभक्ति' का यह कथन महत्व पूर्ण है । भगवान ने भूख-प्यास की प्रादुर्भूति के कारण कर्म का नाश कर दिया है। उसकी वेदना नष्ट होने से विविध भोजन, व्यंजन आदि व्यर्थ हो जाते हैं। अपवित्रता से संबंध न होने के कारण सुगंधित माला आदि का भी प्रयोजन नहीं है । ग्लानि तथा निद्रा के कारण रूप कर्मों का क्षय हो गया है, अतएव मृदु शयनासनादि की आवश्यकता नहीं है। भीषण रोगजनित पीड़ा का अभाव होने से उस रोग के उपशमन हेतु ली जाने वाली औषधि अनुपयोगी है अथवा दृश्यमान जगत में प्रकाशमान रहने पर दीप के प्रकाश का प्रयोजन नहीं रहता है। इसी प्रकार सिद्ध भगवान के समस्त इच्छाओं का अभाव है, इसलिए वाह्य इच्छा पूर्ति करने वाली सामग्री की आवश्यकता नहीं है । मोहज्वर से पीड़ित जगत् के जीवों का अनुभव मोहमुक्त, स्वस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy