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________________ तीर्थंकर [ २६१ भाए दीहा किचूण-सत्तरज्जूओ" । यह पृथिवी घनोदधि, घनवात और तनुवात इन वायुत्रों से युक्त है । इनमें प्रत्येक वायु का बाहुल्य बीस हजार योजन प्रमाण है (८, ६५४, ति० प० ) । इसके बहुमध्य भाग में चाँदी तथा सुवर्ण समान और नाना रत्नों से परिपूर्ण ईषत्प्राग्भार नाम का क्षेत्र है । एदाए बहुमज्झे खेत्तं णामेण ईसिप भारं । श्रज्जुण-सुवण्ण- सरिसं णाणा-रयणेह परिपुरणं ॥ ८-- ६५६ ॥ यह क्षेत्र उत्तान अर्थात् उर्ध्वमुख युक्त धवल छत्र के समान आकार से सुन्दर और पैतालीस लाख योजन प्रमाण विस्तार से युक्त है । उसका मध्य बाहुल्य प्रष्टयोजन और अंत में एक अंगुल मात्र है । अष्टमभूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षेत्र की परिधि के समान है । ( गाथा ६५२ से ६५८ पृ० ८६४) तिलोयपण्णत्ति में आठवीं पृथ्वी को 'ईषत् प्राग्भारा' नाम नहीं दिया गया है । उस पृथ्वी के मध्य में स्थित निर्वाण क्षेत्र को ईषत् प्राग्भार संज्ञा प्रदान की गई है, किन्तु त्रिलोकसार में अष्टम पृथ्वी को ईषत् प्राग्भारा कहा है । त्रिभुवनमूर्धारूढ़ा ईषत् - प्राग्भारा घराष्टमी रूद्रा । दीर्घा एकसप्तरज्जू प्रष्टयोजन - प्रमित- बाहल्या ।। ५५६ ।। त्रिलोक के शिखर पर स्थित ईषत् प्राग्भारा नाम की आठवीं पृथ्वी है । वह एक राजू चौड़ी तथा सात राजू लम्बी और आठ योजन प्रमाण बाहुल्य युक्त है । उस पृथ्वी के मध्य में जो सिद्ध क्षेत्र छत्राकार कहा है उसका वर्णं चाँदी का बताया है - (१) --- तन्मध्य रूप्यमयं छत्राकारं मनुष्यमहीव्यासं । सिद्धक्षेत्रं मध्येष्टवेषक्रमहीनं बाहुल्यम् ॥५५७॥ Jain Education International (१) धवल वर्ण युक्त प्रदेश में महाधवल परणति परिणत परमात्मानों का निवास पूर्णतया सुसंगत प्रतीत होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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