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________________ निर्वाण कल्याणक भगवान जिनेन्द्र ने समस्त कर्मों का नाश करके प्रसिद्धत्व रूप औदयिक भाव विरहित सिद्ध पर्याय को मुक्त होने पर प्राप्त किया है। प्रयोग केवली की अवस्था में भी असिद्धत्व भाव था । राजवार्तिक में कहा है "कर्मोदय-सामान्यापेक्षो असिद्धः । सयोगकेवल्यपोगिकेवलिनोरघातिकर्मोदयापेक्षः” (पृ० ७६) । कर्मोदय सामान्य की अपेक्षा यह प्रसिद्धत्वभाव होता है। सयोग केवली तथा गायोग केवली के भी अघातिया-कर्मोदय की अपेक्षा यह असिद्धत्व माना गया है। अागम में संपूर्ण जगत् को पुरुषाकृति सदृश माना है । उसमें सिद्ध परमेष्ठी की त्रिभुवन के मस्तक पर अवस्थित मुकुट समान बताया है। कहा भी है "तिहुयण-सिर-सेहरया सिद्धां भडारया पसीयंतु” त्रिलोक के शिखर पर मुकुट समान विराजमान सिद्ध भट्टारक प्रसन्न होवें (धवलाटीका, वेदना खण्ड) । सिद्धालय का स्वरूप ____ अनंतानंत सिद्धों ने ध्रुव, अचल तथा अनुपम गति को प्राप्त कर जिस स्थान को अपने चिरनिवास योग्य बनाया है, उसके विषय में तिलोयपण्णत्ति में इस प्रकार कथन किया गया है : सर्वार्थसिद्धि इंद्रक विमान के ध्वजदण्ड से द्वादश योजन मात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथ्वी स्थित है । उसके उपरिम और अध स्तन तल में से प्रत्येक का विस्तार पूर्व पश्चिम में रूप से रहित एक राजू है । वेत्रासन के सदृश वह पृथिवी उत्तर-दक्षिण भाग में कुछ कम सात राजू लम्बी तथा पाठ योजन बाहुल्य वाली है-"दक्षिण-उत्तर ( २६० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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