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________________ तीर्थंकर [ २५६ जिसके मुक्ति की अभिलाषा भी नहीं है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है। इस कारण हित चाहने वाले को किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं करनी चाहिए । सिद्ध कथंचित् अमुक्त हैं भगवान मुक्त हो गए, किन्तु अनेकांत तत्वज्ञान के मर्मज्ञ प्राचार्य अकलंकदेव भगवान को 'अमुक्त' कहते हुए उनको किसी दृष्टि से मुक्त और किसी से अमुक्त प्रतिपादन करते हैं। वे कहते हैं : मुक्ताऽमुक्तकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना। अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमति नमामि तम् ॥१॥ जो कर्मों से रहित होने के कारण मुक्त हैं तथा ज्ञानादि आत्म गुणों के सद्भाव युक्त होने से उनसे अमुक्त हैं, अतः जो कथंचित् मुक्त और कथंचित् अमुक्त हैं, उन ज्ञानमूर्ति, क्षयरहित सिद्ध परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ। प्रात्मदेव की पदवी अब वृषभनाथ भगवान शरीर से मुक्त होने से वृषभनाथ नहीं रहे । माता मरुदेवी के उदर से जिस शरीर युक्त आत्मा का जन्म हुअा था, उसे ही ऋषभनाथ भगवान यह पूज्य नाम प्राप्त हुअा था । निर्वाण जाते समय वह शरीर यहाँ ही कैलाशगिरि पर रह गया । अब आत्मदेव अनंत सिद्धोंके साथ विराजमान हो गए। उनका संसरण अर्थात् चौरासी लाख योनियों में भ्रमण का कार्य समाप्त हो गया। विभाव विमुक्त हो, वे स्वभाव में आ गए। अब वे सचमुच में अपने प्रात्म-भवन के अधिवासी हो गए। व्यवहार दृष्टि से हम उनको ऋषभनाथ, तथा उनके पश्चात्वर्ती तीर्थंकरों को अजितनाथ आदि के रूप में कहते हैं, प्रणाम करते हैं और उनका गुण चितवन भी करते हैं, किन्तु परमार्थ रूप में उन नामों की वाच्यता से वे अतीत हो गए । अब वे शुद्ध परमात्मा हैं । अब वे आत्मदेव हैं । 'णमो सिद्धाणं' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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