SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ ] शरीरत्रितयापाये प्राप्य सिद्धत्वपर्ययं । निजाष्टगुणसंपूर्ण क्षणावाप्त-तनुवातकः ।।४७--३४१॥ ऋषभनाथ भगवान ने प्रदारिक, तैजस तथा कार्माण इन तीनों शरीरों का नाशकर आत्मा के प्रष्ट गुणों से परिपूर्ण सिद्धत्व पर्याय प्राप्त करके क्षणमात्र में लोक के अग्रभाग में पहुँचकर तनुवात वलय के अंत को प्राप्त किया । तीर्थंकर अब ये तीर्थंकर भगवान सिद्ध वन जाने से समस्त विकल्पों से विमुक्त हो गए । ज्ञान नेत्रों से इनका दर्शन करने पर जो स्वरूप ज्ञात होता है, उसे महापुराण में इन शब्दों द्वारा व्यक्त किया गया है । नित्यो निरंजनः किंचिद्नो देहादमूर्तिभाक् । स्थितः स्वसुखसाद्भूतः पश्यन्विश्वमनारतम् ॥४७--३४२॥ अब ये सिद्ध भगवान नित्य, निरंजन, अंतिम शरीर से किंचित् न्यूनाकार युक्त अमूर्त, आत्मा से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्द का रस पान करने वाले तथा संपूर्ण विश्व का निरन्तर अवलोकन करने वाले हो गए । आज भगवान की श्रेष्ठ साधना परिपूर्ण हुई । दीक्षा लेते समय उन्होंने "सिद्धं नमः” कहकर अपने प्राप्तव्य रूप में सिद्धों को निश्चित किया था । आत्म- पुरुषार्थ के प्रताप से उन्होंने परम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त किया । इस मोक्ष के लिए इन प्रभु ने अनेक भवों में महान् प्रयत्न किए थे । आज वे जीवन के अंतिम लक्ष्य-बिंदु पर पहुँच गए । पहले उनके अंतकरण में निर्वाण प्राप्ति की प्रबल पिपासा पैदा हुई थी; पश्चात् मुक्ति के समीप आने पर उन्होंने मोक्ष की इच्छा का भी परित्याग किया था । मुक्ति की प्राप्ति के लिए निर्वाण की इच्छा भी त्याज्य मानी गई है । अकलंक स्वामी ने स्वरूप सम्बोधन में कहा है ---- मोक्षेपि यस्य नाकांक्षा स मोक्षमधिगच्छति । इत्युक्तत्वात् हितान्वेषी कांक्षां न क्वापि योजयेत् ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy