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तीर्थकर
[ २५७ की भी पूर्णता हो चुकी थी, फिर किंचित् न्यून एक कोटि पूर्व काल प्रमाण परिनिर्वाण अवस्था की उपलब्धि न होने का कारण परिपूर्ण चरित्र में कुछ कमी है । अयोगी जिन होते ही वह गुप्तित्रय का स्वामी हो जाता है । उस त्रिगुप्ति के प्रसाद से अयोगी जिन के उपान्त्य समय में अर्थात् अन्त के दो समयों में से प्रथम समय में साता-असाता वेदनीय में से अनुदय रूप एक वेदनीय की प्रकृति, देवगति, औदारिक वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्माण ये पाँच शरीर, पाँच संघात, पाँच बंधन, तीन प्रांगोपांगा, छह संहनन, छह संस्थान, पाँच वर्ष, पाँच रस, आठ स्पर्श, दो गंध, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उच्छवास, परघात, उपघात, विहायोगति-युगल, प्रत्येक, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, स्वरयुगल, अनादेय, अयश कीर्ति, निर्माण तथा नीच गोत्र इन बहत्तर प्रकृतियों का नाश होता है ।
कार्य-समयसार रुप परिणमन
अंत समय में वेदनीय की शेष बची हुई एक प्रकृति, मनुष्यगति, मनुष्यायु तथा मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, प्रादेय, उच्चगोत्र, यशस्कीति ये बारह तथा तेरहवीं तीर्थंकर प्रकृति का भी क्षय करके 'अ इ उ ऋ ल' इन पंचलघु अक्षरों में लगने वाले अल्पकाल के भीतर वे अयोगी जिन आत्मविकास की चरम अवस्था सिद्ध पदवी को प्राप्त करते हैं। मुनिदीक्षा लेते समय इन तीर्थकर भगवान ने सिद्धों को प्रणाम किया था। अब ये सिद्ध परमात्मा बन गए। ये समस्त विभाव-विमुक्त हो कार्य-समयसार रूप परिणत हो गए । अब ये कृतकृत्य हो गए ।
निर्वाण की वेला
महापुराण में लिखा है कि ऋषभदेव भगवान ने माघकृष्णा चतुर्दशी को सूर्योदय की वेला में पूर्वाभिमुख हो “प्राप्तपल्यंक":पल्यंकासन को धारणकर कर्मों का नाश किया :
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